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पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


भगवन्नाम समस्त पाप भस्म कर देता है

(यमदूतों का नया अनुभव)


कन्नौज के आचारच्युत एवं जातिच्युत ब्राह्मण अजामिल ने कुलटा दासी को पत्नी बना लिया था। न्याय-अन्यायसे जैसे भी धन मिले, वैसे प्राप्त करना और उस दासीको संतुष्ट करना ही उसका काम हो गया था। माता-पिताकी सेवा और अपनी विवाहिता साध्वी पत्नीका पालन भी कर्तव्य है, यह बात उसे सर्वथा भूल चुकी थी। उनकी तो उसने खोज-खबर ही नहीं ली। न रहा आचार, न रहा संयम, न रहा धर्म। खाद्य-अखाद्यका विचार गया और करणीय-अकरणीयका ध्यान भी जाता रहा। अजामिल ब्राह्मण नहीं रहा, म्लेच्छप्राय हो गया। पापरत पामर जीवन हो गया उसका और महीने-दों-महीने नहीं पूरा जीवन ही उसका ऐसे ही पापोंमें बीता।

उस कुलटा दासीसे अजामिलके कई संतानें हुईं। पहलेका किया पुण्य सहायक हुआ, किसी सत्युरुषका उपदेश काम कर गया। अपने सबसे छोटे पुत्रका नाम अजामिलने 'नारायण' रखा। बुढ़ापेकी अन्तिम संतानपर पिताका अपार मोह होता है। अजामिलके प्राण जैसे उस छोटे बालकमें ही बसते थे। वह उसीके प्यार-दुलारमें लगा रहता था। बालक कुछ देरको भी दूर हो जाय तो अजामिल व्याकुल होने लगता था। इसी मोहग्रस्त-दशामें जीवनकाल समाप्त हो गया। मृत्युकी घड़ी आ गयी। यमराजके भयंकर दूत हाथोंमें पाश लिये आ धमके और अजामिलके सूक्ष्म शरीरको उन्होंने बाँध लिया। उन विकराल दूतोंको देखते ही भयसे व्याकुल अजामिलने पास खेलते अपने पुत्रको कातर स्वरमें पुकारा-'नारायण! नारायण!'

'नारायण!' एक मरणासन्न प्राणीकी कातर पुकार सुनी सदा सर्वत्र अप्रमत्त, अपने स्वामीके जनोंकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले भगवत्पार्षदोंने और वे दौड़ पड़े। यमदूतोंका पाश उन्होंने छिन्न-भिन्न कर दिया। बलपूर्वक दूर हटा दिया यमदूतोंको अजामिलके पाससे।

बेचारे यमदूत हक्के-बक्के देखते रह गये। उनका ऐसा अपमान कहीं नहीं हुआ था। उन्होंने इतने तेजस्वी देवता भी नहीं देखे थे। सब-के-सब इन्दीवर-सुन्दर, कमललोचन, रत्नाभरणभूषित, चतुर्भुज, शंख-चक्र-गदा-पद्म लिये, अमित-तेजस्वी इन अद्भुत देवताओंसे यमदूतोंका कुछ वश भी नहीं चल सकता था। साहस करके वे भगवत्पार्षदोंसे बोले-'आपलोग कौन हैं? हम तो धर्मराजके सेवक हैं। उनकी आज्ञासे पापीको उनके समक्ष ले जाते हैं। जीवके पाप-पुण्यके फलका निर्णय तो हमारे स्वामी संयमनीनाथ ही करते हैं। आप हमें अपने कर्तव्यपालनसे क्यों रोकते हैं?'

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