ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँस्वामी रामसुखदास
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नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।
उतथ्यके हृदयमें अपने सत्यव्रतका तनिक भी अहंकार नहीं था, प्रत्युत उसके हृदयमें दैन्यताके भाव भरे थे। वह कई बार सोचता-'मुझे तपस्या करनेकी विधि तो मालूम ही नहीं है, फिर मैं कौन-सा श्रेष्ठ साधन करूँ? पूर्वजन्ममें मैंने निश्चय ही कोई अच्छा कार्य नहीं किया, तभी दैवने मुझे मूर्ख बना दिया है।'
एक दिन उतथ्य अपनी कुटियाके बाहर बैठा था। उस समय एक सूकर अत्यन्त भयभीत होकर बड़ी शीघ्रतासे
भागता हुआ उसके पास पहुँचा। वह बाणसे बिंधा हुआ था उसकी देह रुधिरसे लथपथ थी। वह भयसे थर-थर काँप रहा था, अतः दयाका महान् पात्र था। उस दीन-हीन पशुपर उतथ्यकी दृष्टि पड़ी। दयाके उद्रेकसे वह काँप उठा। उसके मुखसे 'ऐ' का उच्चारण हो गया।
उतथ्यको यह ज्ञान नहीं था कि 'ऐ' सरस्वती देवीका बीज-मन्त्र है। किसी अदृष्टकी प्रेरणासे शोकमें पड़ थानेसे ही उसके मुखसे यह उच्चारण हुआ था, परंतु उसे सत्यके बलसे वाक्-सिद्धि प्राप्त हो गयी थी। यद्यपि भगवती देवी सरस्वतीके वाग्बीज मन्त्रका शुद्ध उच्चारण 'ऐं' है, परंतु कृपामयी भगवती उतथ्यके 'ऐ' शब्दमात्रके उच्चारणसे ही उसपर प्रसन्न हो गयीं। और भगवतीकी कृपासे उसे सम्पूर्ण विद्याएँ स्फुरित हो गयीं।
वह सूकर भागकर एक झाडीमें छिप गया। थोड़ी ही देरमे उसके पीछे-पीछे एक मूर्ख जंगली व्याध दौड़ता हुआ उतथ्य मुनिके पास पहुँचा। उसकी सूरत बड़ी डरावनी थी, जिससे प्रतीत होता था कि वह हिंसा-वृत्तिमें बड़ा निपुण है। वह कानतक बाण खींचे हुए हाथमें धनुष लिये था। उस व्याधने उतथ्य मुनिसे पूछा-'द्विजवर! आप प्रसिद्ध सत्यव्रती हैं कृपापूर्वक बतायें कि मेरे बाणसे बिंधा हुआ वह सूकर कहां गया? मेरा सारा परिवार भूखसे छटपटा रहा है। कुटुम्बका भरण-पोषण करनेका मेरे पास कोई दूसरा साधन नहीं है। यही मेरी वृत्ति है। आप शीघ्र उसे बता दें, अन्यथा भूखसे व्याकुल मेरे बच्चे प्राण त्याग देंगे।'
उतथ्य बड़े धर्म-संकटमें पड़ गये। वे जानते थे कि वह सत्य सत्य नहीं है, जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दयायुक्त हो तो अनृत भी सत्य ही कहा जाता है। क्या निर्णय करें, वे कुछ समझ नहीं सके।
सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा
दयान्त्रितं चानृतमेव सत्यम्।
हित नराणां भवतीह येन
तदेव सत्यं न तथान्यथैव।।
उतथ्यका हृदय दयासे ओतप्रोत था। भगवती सरस्वती देवीकी उनपर कृपा हो चुकी थी, तुरंत उनके मनमें स्फुरणा हुई और वे बोले-
या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रते सा न पश्यति।
अहो व्याध स्वकार्यार्थी किं पृच्छसि पुनः पुनः।।
'व्याध! जो आँख देखनेवाली है, वह बोलती नहीं और जो वाणी बोलती है, उसने देखा नहीं, फिर अपना कार्य साधनेकी धुनमें लगे हुए तुम क्यों बार-बार पूछ रहे हो?'
मुनिवर उतथ्यके यों कहनेपर उस पशुघाती व्याधको निराश होकर खाली हाथ लौटना पड़ा।
तदनन्तर उतथ्यने सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐं' का विधिवत् जाप किया। उनका यशोगान एवं उनकी विद्याकी प्रभा चारों ओर फैल गयी। जिन पिताने उन्हें त्याग दिया था, वे ही उन्हें बड़े आदरके साथ घर ले गये। वाल्मीकिजीकी तरह ही उतथ्य मुनि एक महान् कवि बन गये। यह सब सत्यकी महिमा एवं भगवती सरस्वती देवीकी कृपाका फल था।
(देवीभागवतपुराण)
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