लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9593
आईएसबीएन :9781613015810

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

1 पाठक हैं

नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये पौराणिक कहानियाँ।


मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण


सुशील नामके एक ब्राह्मण थे। उनके दो पुत्र थे। बड़ेका नाम था सुवृत्त और छोटेका वृत्त। दोनों युवा थे। दोनो गुणसम्पन्न तथा कई विद्याओंमें विशारद थे। घूमते-घामते दोनों एक दिन प्रयाग पहुँचे। उस दिन श्रीकृष्णजन्माष्टमी थी। इसलिये श्रीबेणीमाधवजीके मन्दिरमें महान् उत्सव था। महोत्सव देखनेके लिये वे दोनों भी निकले।

वे लोग सड़कपर निकले ही थे कि बड़े जोरकी वर्षा आ गयी, इसलिये दोनों भाई मार्ग भूल गये। किसी निश्चित स्थानपर उनका पहुँचना कठिन था। अतएव एक तो वेश्याके घरमें चला गया, दूसरा भूलता-भटकता माधवजीके मन्दिरमें जा पहुँचा। सुवृत्त चाहता था कि वृत्त भी उसके साथ वेश्याके यहाँ ही रह जाय, पर वृत्तने इसे स्वीकार नहीं किया। वह माधवजीके मन्दिरमें पहुँचा भी, पर वहाँ पहुँचनेपर उसके संस्कार बदले और वह लगा पछताने। वह मन्दिरमें रहते हुए भी सुवृत्त और वेश्याके ध्यानमें डूब गया। वहाँ भगवान् की पूजा हो रही थी। वृत्त उसे सामनेसे ही खड़ा देख रहा था। पर वह वेश्याके ध्यानमें ऐसा तल्लीन हो गया था कि वहाँकी पूजा, कथा, नमस्कार, स्तुति, पुष्पानलि, गीत-नृत्यादिको देखते-सुनते हुए भी न देख रहा था और न सुन रहा था। वह तो बिलकुल चित्रके समान वहाँ निर्जीव-सा खड़ा था।

इधर वेश्यालयमें गये सुवृतकी दशा विचित्र थी। वह पश्रात्तापकी अग्निमें जल रहा था। वह सोचने लगा-'अरे! आज भैया वृत्तके हजारों जन्मोंके पुण्य उदय हुए जो वह जन्माष्टमीकी रात्रिमें प्रयागमें भगवान् माधवका दर्शन कर रहा है। ओह! इस समय वह प्रभुको अर्घ्य दे रहा होगा। अब वह पूजा-आरतीका दर्शन कर रहा होगा। अब वह नाम एवं कथा-कीर्तनादि सुन रहा होगा। अब तो नमस्कार कर रहा होगा। सचमुच आज उसके नेत्र, कान, सिर, जिह्वा तथा अन्य सभी अंग सफल हो गये। मुझे तो बार-बार धिक्कार है, जो मैं इस पापमन्दिर-वेश्याके घरमें आ पड़ा। मेरे नेत्र मोरके पाँखके समान हैं, जो आज भगवद्दर्शन न कर पाये। हाय! आज संत-समागमके बिना मुझे यहाँ एक-एक क्षण युगसे बड़ा मालूम होने लगा है। अरे! देखो तो मुझ दुरात्माके आज कितने जन्मोंके पाप उदित हुए कि प्रयाग-जैसी मोक्षपुरीमें आकर भी मैं घोर दुष्ट-संगमें फँस गया।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book