उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘इसके छः मास उपरान्त वह बिलासपुर में दीदी के साथ आये तो मैं अपनी उत्सुकता की पूर्ति के लिये दीदी के घर रहने जा पहुँची। वहाँ दीदी के साथ वाले कमरे में रात रह गयी। जीजाजी का दीदी से उसी दिन झगड़ा हुआ था।
‘‘उस झगड़े का कारण यह था कि जीजाजी के एक बाबा थे। वह बहुत ही रोचक कथा करना जानते थे। उन्होंने दीदी को प्रेरणा दी कि विवाह का अमृत-फल सन्तान है। इसके बिना पति का भोग बिना परिश्रम के पारिश्रमिक पाना है। दीदी और जीजाजी सन्तान निरोध के उपाय प्रयोग करते थे। दीदी को समझ आ गयी और उसने सन्तान निरोध उपकरण प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। जीजाजी नाराज हो मेरे कमरे में चले आये।
‘‘और मैंने आपको इस दुर्घटना की बात बतायी थी?’’
‘‘तो यह बात थी? अर्थात् यह तुम्हारे जीजाजी ही थे?’’
‘‘जी। मैं दो दिन वहाँ रही, परन्तु बाबा की कथा सुनते हुए मुझे अपने पर घृणा उत्पन्न हो गयी और मैं अपनी माँ के घर चली गयी। मेरी शिकायत दीदी ने कर रखी थी। इस कारण मुझे माता-पिता ने डाँट बतायी और घर से निकाल देने की धमकी दी। मैं जीजाजी के बाबा से सम्मति करने गयी तो उन्होंने मुझे पश्चात्ताप करने को कहा और प्रायश्चित्त बताया। वह मैंने पूर्ण किया तो पिताजी ने क्षमा कर दिया। इसके उपरान्त मैंने बी० ए० पास किया और फिर समय पाकर आपसे विवाह हो गया।’’
‘‘किस प्रकार पश्चात्ताप किया था और बाबा ने कौन-सा प्रायश्चित बताया था?’’
‘‘पश्चात्ताप में मैंने अपने पाप-कर्म को बिना कुछ भी छुपाये अपने
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