उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘ठीक है। यदि यह वही उनके पुत्र हैं तो माँ को पुत्र मिल जाना चाहिये।’’
गरिमा ऊपर अपने कमरे को चली गयी। जब वह ऊपर पहुँची तो लड़की सो चुकी थी और कुलवन्त अमेरिका-जापान युद्ध पर एक पुस्तक पढ़ रहा था।
गरिमा उसके समीप कुर्सी पर बैठी तो स्वतः ही कहने लगी, ‘‘मैं दीदी से एक आवश्यक विषय पर सम्मति करने रह गयी थी।’’
यह प्रारम्भिक बात तो उसने पति का ध्यान आकर्षित करने के लिये की थी। कुलवन्तसिंह ने पूछ लिया, ‘‘तो क्या वह आवश्यक बात मुझसे भी करना चाहती हो?’’
‘‘जी! बात यह है कि यह दीदी के रहस्य की बात थी। उससे पूछे बिना किसी से भी कह नहीं सकती थी। हम दोनों की सम्मति यह हुई है कि वह रहस्य की बात आपको बता दी जाये और फिर आपसे इसमें सहायता ली जाये।’’
‘‘कुछ अमृतलाल की बात है क्या?’’
‘‘जी! मुझे और दीदी को भी यह सन्देह हुआ है कि वह मेरे जीजाजी ही हैं। वह दीदी से लड़कर घर से निकल गये थे। इस कारण मैं दीदी से पूछकर ही आपको बताना चाहती थी।’’
‘‘मुझे भी कुछ ऐसा ही समझ में आया है। परन्तु अमृतलाल ने बताने का कुछ यत्न नहीं किया और मैंने भी कुछ अधिक जानने की आवश्यकता नहीं समझी।’’
‘‘यह आज से दस बर्ष पहले की बात है। मैं अभी ग्यारहवीं श्रेणी मैं पढ़ती थी कि दीदी से मिलने और अपनी छुट्टियाँ व्यतीत करने उसके घर चण्डीगढ़ गयी थी। जीजाजी वहाँ की कार्पोरेशन में इन्जीनियर थे। जीजाजी ने मुझसे प्रेम प्रकट करना आरम्भ कर दिया। एक दिन वह प्रेम का सीमोल्लंघन करने लगे तो मैं वहाँ से चली आयी, परन्तु मेरे मन में उत्सुकता बनी रही कि देखूँ उससे क्या रस प्राप्त होता है?
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