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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


बस, उन्हीं के चरणों में मुझे ये विचार प्राप्त हुये। मेरे साथ और भी नवयुवक थे। मैं केवल बालक ही था। मेरी उम्र रही होगी सोलह वर्ष की, कुछ और तो मुझसे भी छोटे थे और कुछ बड़े भी थे – लगभग एक दर्जन रहे होंगे हम सब। और हम सब ने बैठकर यह निश्चय किया कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है। और चल पड़े हम लोग – न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिए, बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिये। तात्पर्य यह है कि हमें दिखलाना था हिन्दुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व – और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया, हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगे – अभी और यहीं। हम रुकेंगे नहीं।

हमारे गुरु एक वृद्धजन थे, जो एक सिक्का भी कभी हाथ से नहीं छूते थे। बस जो कुछ थोडा सा भोजन दिया जाता था, वे उसे ही ले लेते थे, और कुछ गज कपड़ा - अधिक कुछ नहीं। उन्हें और कुछ स्वीकार करने के लिए कोई प्रेरित ही न कर पाता था। इन तमाम अनोखे विचारों से युक्त होने पर भी वे बड़े अनुशासन-कठोर थे, क्योंकि इसी ने उन्हें मुक्त किया था। भारत का संन्यासी आज राजा का मित्र है, उसके साथ भोजन करता है, तो कल वह भिखारी के साथ है और पेड़ तले सो जाता है। उसे प्रत्येक व्यक्ति से सम्पर्क स्थापित करना है, उसे सदैव चलते ही रहना है। कहते हैं – लुढ़कते पत्थर पर काई कहाँ? अपने जीवन के गत चौदह वर्षों में कभी मैं एक स्थान पर एक साथ तीन माह से अधिक रुका नहीं, सदा भ्रमण ही करता रहा। हम सब के सब यही करते हैं।

इन मुट्ठी भर युवकों ने इन विचारों को और उनसे निकलने वाले सभी व्यावहारिक निष्कर्षों को अपनाया। सार्वभौमिक धर्म, दीनों से सहानुभूति और ऐसी ही बातों का – जो सिद्धान्ततः बड़ी अच्छी हैं, पर जिन्हें चरितार्थ करना आवश्यक था – बीड़ा इन्होंने उठाया।

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