ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
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एक समय की बात है कि मुझे एक वृद्ध गुरु मिले। वे बिलकुल विचित्र थे। उन महाशय को बौद्धिक पाण्डित्य में कुछ चाव न था, क्वचित् ही वे पुस्तकें देखते या उनका मनन करते। पर जब वे कम उम्र के ही थे, तभी से उनके मन में सत्य का सीधा साक्षात्कार कर लेने की बड़ी उग्र आकांक्षा समा गयी। पहले पहल उन्होंने अपने ही धर्म पर प्रयोग किया। फिर उनके मन में आया कि नहीं, और भी धर्मों के सत्य को पाया जाए। इस उद्देश्य से वे एक के बाद एक धर्मों का अनुष्ठान करते चले। उस समय तक तो जो कुछ उनसे कहा जाता, वे ध्यानपूर्वक करते और तब तक उस सम्प्रदाय विशेष में रहते, जब तक कि उस सम्प्रदाय के विशिष्ट आदर्श का साक्षात्कार न कर लेते। फिर कुछ वर्षों के बाद दूसरे सम्प्रदाय की साधना में लग जाते। जब वे सारे सम्प्रदायों का अनुभव कर चुके, तब वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वे सभी ठीक हैं। किसी में भी वे दोष न देख सके। हर सम्प्रदाय एक ऐसा मार्ग है, जिससे लोग एक निश्चित केन्द्र पर ही पहुंचते हैं। और तब उन्होंने घोषणा की कि यह कितने गौरव की बात है कि यहाँ इतने अधिक मार्ग हैं, क्योंकि यदि एक ही मार्ग होता तो तो शायद वह केवल एक ही व्यक्ति के अनुकूल होता। इतने अधिक मार्ग होने से हर एक व्यक्ति को सत्य तक पहुँचने का अधिक से अधिक अवसर सुलभ है। यदि मैं एक भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता, तो मुझे दूसरी भाषा आजमानी चाहिए। और इस तरह उन्होंने प्रत्येक धर्म को आशीष दिया।
मैं जिन विचारों का सन्देश देना चाहता हूँ, वे सब उन्हीं के विचारों को प्रतिध्वनित करने की मेरी अपनी चेष्टा है। इसमें मेरा अपना निजी मौलिक विचार कोई भी नहीं, हाँ, जो कुछ असत्य अथवा बुरा है, वह अवश्य मेरा ही है। पर हर ऐसा शब्द, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहता हूँ और जो सत्य एवं शुभ है, केवल उन्हीं की वाणी को झंकार देने का प्रयत्न मात्र है। प्रोफेसर मैक्समूलर द्वारा लिखित उनके जीवनचरित्र को तुम पढ़ो। (अंग्रेजी में लिखित ‘रामकृष्ण : हिज लाइफ एण्ड सेइंग्स’ जो पहले 1896 में लन्दन से प्रकाशित हुई और जिसका पुनर्मुद्रण 1951 में अद्वैत आश्रम ने किया।)
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