ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
यह सम्प्रदाय कोई धर्मग्रंथ – चर्च – नहीं है और न इसके अनुयायी पुरोहित होते हैं। पुरोहितों और संन्यासियों में मौलिक भेद है। भारत के अन्य व्यवसायों की भाँति ही पुरोहिती भी सामाजिक जीवन का एक पैतृक व्यवसाय है। पुरोहित का पुत्र भी उसी प्रकार पुरोहित बन जाता है, जिस प्रकार बढ़ई का पुत्र बढ़ई अथवा लोहार का पुत्र लोहार। पुरोहित को विवाहसूत्र में भी बंधना पड़ता है। हिन्दू का मत है कि पत्नी के बिना पुरुष अधूरा है। अविवाहित पुरुष को धार्मिक कृत्य करने अधिकार नहीं।
संन्यासियों के पास सम्पत्ति नहीं होती। वे विवाह नहीं करते। उनके ऊपर कोई समाज व्यवस्था नहीं। एकमात्र बन्धन जो उन पर रहता है, वह है गुरु और शिष्य का आपसी सम्बन्ध – और कुछ नहीं। और यह भारत की अपनी निजी विशेषता है। गुरु कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो बस कहीं से आकर मुझे शिक्षा दे देता है और उसके बदले में मैं उसे कुछ धन दे देता हूँ और बात खत्म हो जाती है। भारत में यह गुरु-शिष्य सम्बन्ध वैसी ही प्रथा है, जैसे पुत्र को गोद लेना। गुरु पिता से भी बढ़कर है और मैं सचमुच गुरु का पुत्र हूँ – हर तरह से उनका पुत्र। पिता से भी बढ़कर मैं उनकी आज्ञा का अनुचर हूँ, उनसे बढकर वे मेरे सम्मान्य हैं – और वह इसलिए कि जहाँ मेरे पिता ने मुझे केवल यह शरीर मात्र दिया, मेरे गुरु ने मुझे मेरी मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया और इसलिए वे पिता से बढ़कर हैं। मेरा अपने गुरु के प्रति यह सम्मान जीवनव्यापी होता है। मेरा प्रेम चिरजीवी होता है। बस एकमात्र यही सम्बन्ध है जो बच रहता है। मैं इसी प्रकार अपने शिष्यों को ग्रहण करता हू। कभी कभी तो गुरु एकदम नवयुवक होता है और शिष्य कहीं अधिक बूढ़ा। पर चिन्ता नहीं, बूढ़ा पुत्र बनता है, और मुझे पिता शब्द से सम्बोधित करता है। मुझे भी उसे पुत्र या पुत्री कहकर पुकारना पड़ता है।
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