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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


किसी राष्ट्र में यदि तुमको कार्य करना है, तो उसी राष्ट्र की विधियों को अपनाना होगा। हर आदमी को उसी की भाषा में बतलाना होगा। अगर तुमको अमेरिका या इंग्लैण्ड में धर्म का उपदेश देना है, तो तुमको राजनीतिक विधियों के माध्यम से काम करना होगा - संस्थाएं बनानी होंगी, समितियाँ गढ़नी होंगी, वोट देने की व्यवस्था करनी होगी, बैलेट के डिब्बे बनाने होंगे, सभापति चुनना होगा इत्यादि - क्योंकि पाश्चात्य जातियों की यही विधि और यही भाषा है। पर यहाँ भारत में यदि तुमको राजनीति की ही बात कहनी है, तो धर्म की भाषा को माध्यम बनाना होगा। तुमको इस प्रकार कुछ कहना होगा – ‘जो आदमी प्रतिदिन सबेरे अपना घर साफ करता है, उसे इतना पुण्य प्राप्त होता है कि उसे मरने पर स्वर्ग प्राप्त होता है, वह भगवान में लीन हो जाता है।’ जब तक तुम इस प्रकार उनसे न कहो, वे तुम्हारी बात समझेंगे ही नहीं। यह प्रश्न केवल भाषा का है। बात जो की जाती है, वह तो एक ही है। हर जाति के साथ यही बात है। परन्तु प्रत्येक जाति के हृदय को स्पर्श करने के लिए तुमको उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा। और यह ठीक भी है। हमें इसमें बुरा नहीं मानना चाहिये।

जिस सम्प्रदाय का मैं हूँ, उसे संन्यासी की संज्ञा दी जाती है। इस शब्द का अर्थ है – विरक्त – जिसने संसार छोड़ दिया हो, यह सम्प्रदाय बहुत बहुत प्राचीन है। गौतम बुद्ध जो ईसा के 560 वर्ष पूर्व आविर्भूत हुए थे, वे भी इसी सम्प्रदाय से थे। वे इसके सुधारक मात्र थे। इतना प्राचीन है यह। संसार के प्राचीनतम ग्रंथ वेद में भी इसका उल्लेख है। प्राचीन भारत का यह नियम था कि प्रत्येक पुरुष और स्त्री अपने जीवन की सन्ध्या के निकट सामाजिक जीवन को त्यागकर केवल अपने मोक्ष और परमात्मा के चिन्तन में संलग्न रहे। यह सब उस महान घटना का स्वागत करने की तैयारी है, जिसे मृत्यु कहते हैं। इसलिए उस प्राचीन युग में वृद्धजन संन्यासी हो जाया करते थे। बाद में युवकों ने भी संसार त्यागना आरम्भ किया। युवकों में शक्ति बाहुल्य रहता है, इसलिए वे एक वृक्ष के नीचे बैठकर सदा सर्वदा अपनी मृत्यु के चिन्तन में ही ध्यान लगाए न रह सके, वे यहाँ-वहाँ जाकर उपदेश देने और नये-नये सम्प्रदायों का निर्माण करने लगे। इसी प्रकार युवा बुद्ध ने वह महान सुधार आरम्भ किया। यदि वे जराजर्जरित होते, तो बस नासाग्र पर दृष्टि रखते और शान्तिपूर्वक मर जाते।

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