ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
तब वह दुःख का दिन आया, जब हमारे गुरुदेव ने महासमाधि ली। हमसे जितना बना, हमने उनकी सेवासुश्रूषा की। हमारे कोई मित्र न थे। सुनता भी कौन, हम कुछ विचित्र सी विचारधारा के छोकरों की बात? कोई नहीं। कम से कम भारत में तो छोकरों की कोई कीमत नहीं। जरा सोचो – बारह लड़के लोगों को विशाल महान सिद्धान्त सुनाएँ और कहें कि वे इन विचारों को जीवन में चरितार्थ करने के लिए कृतसंकल्प हैं। हाँ, सभी ने हँसी की, हँसी करते करते वे गम्भीर हो गये – हमारे पीछे पड़ गये – उत्पीड़न करने लगे, और ज्यों ज्यों लोगों ने हमारी खिल्ली उड़ायी, त्यों त्यों हम और दृढ़ होते गये।
तब इसके बाद एक भयंकर समय आया, मेरे लिए और मेरे बालक मित्रों के लिए भी। पर मुझ पर तो और भी भीषण दुर्भाग्य छा गया था। एक ओर थे मेरी माता और भ्रातागण। मेरे पिता जी का देहावसान हो गया था और हम लोग असहाय, निर्धन रह गये, इतने निर्धन कि हमेशा फाकाकशी की नौबत आ गयी। कुटुम्ब की एकमात्र आशा मैं था, जो थोड़ा कमाकर कुछ सहायता पहुँचा सकता। मैं दो दुनियाओं की सन्धि पर खड़ा था। एक ओर था मेरी माता और भाइयों के भूखों मरने का दृश्य, और दूसरी ओर थे इन महान पुरुष के विचार, जिनसे – मेरा खयाल था – भारत का ही नहीं, सारे विश्व का कल्याण हो सकता है और इसलिए जिनका प्रचार करना, जिन्हें कार्यान्वित करना अनिवार्य था। इस तरह मेरे मन में महीनों यह संघर्ष चलता रहा। कभी तो मैं छह छह, सात सात दिन और रात निरन्तर प्रार्थना करा रहता। कैसी वेदना थी वह। मानों मैं जीवित ही नरक में था। कुटुम्ब के नैसर्गिक बन्धन और मोह मुझे अपनी ओर खींच रहे थे – मेरा बाल्य हृदय भला कैसे इतने सगों का दर्द देखते रहता? फिर दूसरी ओर कोई सहानुभूति करने वाला भी नहीं था। बालक की कल्पनाओं से सहानुभूति करता भी कौन, ऐसी कल्पनाएँ जिनसे औरों को तकलीफ ही होती? मुझसे भला किसकी सहानुभूति होती? – किसी की नहीं – सिवा एक के।
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