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मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


स्वभाव से खेती उन्हें प्यारी है। तुम उन्हें लूट लो, उनको कत्ल कर दो, उन पर कर लगा दो, तुम उनके साथ कुछ भी करो, पर जब तक तुम उन्हें अपने धर्मपालन की स्वतंत्रता देते हो, तब तक वे बड़े नम्र बने रहेंगे – बड़े ही शान्त और चुप। वे कभी औरों के धर्म से नहीं भिड़ते। ‘हमारे देवताओं की पूजा करने की हमें स्वतंत्रता दो, फिर चाहे हमसे और सब कुछ छीन लो’ – यही उनका रुख है। अंग्रेजों ने जब उस मर्मस्थल को छुआ, तो प्रारम्भ हो गया उपद्रव। सन् 1957 की गदर का यही सच्चा कारण था – वे धार्मिक दमन सह न सके। मुस्लिम सरकारें बस इसलिए उड़ा दी गईं कि उन्होंने भारत के धर्म को छूने की चेष्टा की।

यह अगर छोड़ दो, तो वे बड़े शान्तिप्रिय, अवाचाल, नम्र और सर्वोपरि, दुर्व्यसनों से दूर होते हैं। उनमें मादक-पेय का अभाव उन्हें किसी भी देश की साधारण जनता से बहुत ऊँचा उठा देता है। भारत के दरिद्रों के जीवन की उत्तमता की तुलना तुम अपने देश की झोपड़ियों के जीवन से नहीं कर सकते। झोपड़ी का अर्थ निस्संदेह दरिद्रता है, पर भारत में दरिद्रता के मानी पाप, गन्दगी, व्यभिचार और दुर्व्यसन तो कभी नहीं होते। अन्य देशों में व्यवस्था ही ऐसी है कि केवल व्यभिचारी और आलसी लोग ही दरिद्र बने रहें। यहाँ दरिद्रता का कारण ही नहीं, जब तक कि मनुष्य निपट मूढ़ अथवा मक्कार न हो, ऐसा मूढ़ जिसे नागरिक जीवन के ऐश्वर्य का मोह हो। ऐसे लोग गाँव में कभी नहीं जाएँगे। उनका कहना है, ‘हम तो जीवन के मनोरंजनों, रँगरेलियों के बीच रहते हैं, भोजन हमें दिया ही जाना चाहिये।’ पर हमारे देश की बात ऐसी नहीं। वहाँ के दरिद्र सबेरे से दिन डूबे तक पसीना बहाते हैं और अन्त में कोई अन्य व्यक्ति आकर उनके हाथ से रोटी छीन कर ले जाता है – उनके बच्चे भूख से तड़पते रहते हैं। भारत में करोड़ों टन गेहूँ पैदा किया जाता है, पर शायद ही एक दाना गरीब के मुँह में जाता हो। वे तो ऐसे निकृष्ट अन्न पर पलते हैं, जिसे तुम अपनी चिड़ियों को भी न खिलाओ।

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