लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय

मेरा जीवन तथा ध्येय

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :65
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9588
आईएसबीएन :9781613012499

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

252 पाठक हैं

दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान


सचमुच ऐसा कोई कारण नहीं कि इतने अच्छे, इतने पवित्र लोगों को ऐसी मुसीबतें झेलनी पड़ें – ये बेचारे गरीब। हम बहुत सुनते हैं इन कोटि कोटि दीन-दुखियों की दुखभरी कहानियाँ, वहाँ की पतिता स्त्रियों के दर्द भरे किस्से। पर कोई तो आये उनका दुख दूर करने, उनका दर्द बँटाने। बस मुँह से कहते भर हैं, ‘तुम्हारा दुःख, तुम्हारा दर्द तभी दूर हो सकता है, जब तुम वह न रहो जो कि आज हो। हिन्दुओं को मदद देना व्यर्थ है।’ ऐसा कहने वाले जातियों के इतिहास को नहीं जानते। भारत उस दिन बचेगा ही कहाँ, जिस दिन उसकी प्राणदायिनी शक्तियों का अन्त हो जायेगा – जिस दिन वहां के निवासी अपना धर्म बदल देंगे, जिस दिन वे अपनी संस्थाओं का रूपान्तर कर देंगे। उस दिन तो वह जाति ही विलीन हो जाएगी, तब तुम सहायता करोगे किसकी?

एक बात और भी हम सब को सीख लेनी है – और वह यह कि हम सचमुच में किसी को सहायता नहीं दे सकते। हम एक दूसरे के लिए भला क्या कर सकते हैं? तुम अपने जीवन में बढ़ते जाते हो और मैं अपने जीवन में। अधिक से अधिक यह सम्भव है कि मैं तुमको थोड़ा सा सहारा देकर आगे बढ़ा दूँ, जिससे अन्ततोगत्वा तुम अपनी मंजिल पर पहुँच जाओ – इस पूरी जानकारी के साथ कि सारी दुनियाँ का गन्तव्य एक ही है, राहें अलग अलग। यह वृद्धि क्रमिक होती है। ऐसी कोई राष्ट्रीय सभ्यता नहीं, जिसे पूर्ण कहा जा सके, सभ्यता को थोड़ा सा सहारा दे दो, और वह अपने गन्तव्य तक पहुँच जाएगी। उसे बदलने का प्रयास न करो। छीन लो किसी देश से उसकी संस्थाएं, उसके रीति-रिवाज, उसके चाल-चलन, फिर बच ही क्या रहेगा भला? इन्हीं तन्तुओं से राष्ट्र बँधा रहता है।

पर तभी विदेशी पण्डित महोदय आते हैं और कहते हैं, “देखो, इन हजारों वर्षों की संस्थाओं और रीतियों को तुम तिलांजलि दे दो और हमारे इस नये मूढ़ता के टीनपाट (tin pot) को गले लगाओ और मौज करो।” यह सब मूर्खता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book