ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
अन्त में धर्ममहासभा का उद्घाटन हुआ और मुझे बड़े सदय मित्र मिले, जिन्होंने मेरी खूब सहायता की। मैंने थोड़ा परिश्रम किया, धन जमा किया और दो पत्र निकाले। इसके बाद मैं इंग्लैण्ड गया और वहाँ भी काम किया। साथ ही साथ अमेरिका में भी भारत के हित साधता रहा।
भारत विषयक मेरी योजना का जो विकास और केन्द्रीकरण हुआ है, वह इस प्रकार हैः मैं कह चुका हूँ कि संन्यासी लोग वहाँ किस प्रकार जीवनयापन करते हैं, किस प्रकार द्वार द्वार भीख माँगने जाते हैं और बिना किसी शुल्क के धर्म को उन तक पहुँचाते हैं। बहुत हुआ तो बदले में एक रोटी का टुकड़ा ले लिया। यही कारण है कि भारत का अदने से अदना व्यक्ति भी धर्म की ऐसी उच्च प्रेरणाएँ अपने साथ रखता है। यह सब इन्हीं संन्यासियों के कार्य का फल है। तुम उनसे प्रश्न करो, “अंग्रेज लोग कौन हैं?” – उन्हें पता नहीं। शायद उत्तर मिल जाए, “वे उन राक्षसों की संतान हैं, जिनका वर्णन उन ग्रन्थों में है। है न यही?” “तुम्हारा शासक कौन है?” - “हमें पता नहीं।” “शासन क्या है?” - “हमें पता नहीं।” पर तत्वज्ञान वे जानते हैं। जो उनकी असली कमजोरी है, वह है इस पार्थिव जीवनसम्बन्धी व्यावहारिक बौद्धिक शिक्षा का अभाव। ये कोटि कोटि मानव इस संसार से परे के जीवन के लिए सदा प्रस्तुत रहते हैं – और यही क्या उनके लिए पर्याप्त नहीं? नहीं, कदापि नहीं। उन्हें कहीं अच्छे रोटी के टुकड़े की जरूरत है, उनकी देह को कहीं अच्छे कपड़े के टुकड़े की आवश्यकता है। विकट समस्या यही है कि यह अच्छा रोटी का टुकड़ा और अच्छा कपड़ा इन गये-बीते कोटि-कोटि मानवों को प्राप्त हो कहाँ से?
पहले मैं तुमसे कह दूँ कि उन लोगों के लिए बड़ी आशा है, क्योंकि वे संसार में सब से अधिक नम्र व्यक्ति हैं। पर कायर और भीरु नहीं। जब उनहें लड़ना होता है तो दैत्यों की भाँति लड़ते हैं। अंग्रेजों के सर्वोत्तम सैनिक भारत के किसानों से ही भर्ती किये गये हैं। मृत्यु का उनके सामने कोई महत्व नहीं। उनका मत है - “बीसों बार तो मेरी मौत हो चुकी और सैकड़ों बार अभी मौत होनी है। इससे क्या?” पीछे हटना उन्हें नहीं आता। भावुकता के वे कायल नहीं, पर योद्धा वे उच्चतम कोटि के हैं।
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