ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
इस तरह चलता रहा। दस साल बीत गये, पर प्रकाश न मिला। इधर स्वास्थ्य दिन पर दिन क्षीण होता चला। शरीर पर इनका असर हुए बिना रह सकता, कभी रात के नौ बजे एक बार खा लिया, तो कभी सबेरे आठ बजे ही एक बार खाकर रह गये, दूसरी बार दो रोज के बाद खाया तो तीसरी बार तीन रोज के बाद – और हर बार नितान्त रूखा-सूखा, शुष्क, नीरस भोजन। अधिकांश समय पैदल ही चलते, बर्फीली चोटियों पर चढ़ते, कभी कभी तो दस दस मील पहाड़ पर चढ़ते ही जाते – केवल इसलिए कि एक बार का भोजन मिल जाए। बतलाओ भला, भिखारी को कौन अपना अच्छा भोजन देता है? फिर सूखी रोटी ही भारत में उनका भोजन है और कई बार तो वे सूखी रोटियाँ बीस बीस, तीस तीस दिन के लिए इकट्ठी करके रख ली जाती हैं और जब वे ईंट की तरह कड़ी हो जाती हैं, तब उनसे षडरस व्यंजन का उपभोग सम्पन्न होता है। एक बार का भोजन पाने के लिए मुझे द्वार द्वार भीख माँगते फिरना पड़ता था। और फिर रोटी ऐसी कड़ी कि खाते खाते मुँह से लहू बहने लगता था। सच कहूँ, वैसी रोटी से तुम अपने दाँत तोड़ सकते हो। मैं तो रोटी को एक पात्र में रख लेता और उसमें नदी का पानी उँड़ेल देता था। इस तरह महीनों गुजारने पड़े, निश्चय ही इन सब का प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ रहा था।
फिर मैंने सोचा कि भारत को तो अब देख लिया – चलो अब किसी और देश को आजमाया जाये। उसी समय तुम्हारी धर्ममहासभा होने वाली थी और वहाँ भारत से किसी को भेजना था। मैं तो एक खानाबदोश सा था, पर मैंने कहा, “यदि मुझे भेजा जाए, तो मैं जाऊँगा। मेरा कुछ बिगड़ता तो है नहीं, और अगर बिगड़े भी, तो मुझे परवाह नहीं।” पैसा जुटा सकना बड़ा कठिन था। पर बड़ी खटपट के बाद रुपया इकट्ठा हुआ और वह भी मेरे किराये मात्र का। और बस, मैं यहाँ आ गया – दो एक महीने पहले ही। क्या करता – न किसी से जान, न पहचान। बस सड़कों पर यहाँ वहाँ भटकने लगा।
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