ई-पुस्तकें >> मेरा जीवन तथा ध्येय मेरा जीवन तथा ध्येयस्वामी विवेकानन्द
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दुःखी मानवों की वेदना से विह्वल स्वामीजी का जीवंत व्याख्यान
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हम युवकों का समूह भ्रमण करता रहा। शनैः शनैः लोगों का ध्यान हमारी ओर खिंचा, नब्बे प्रतिशत उसमें विरोधी थे, बहुत ही अल्पांश सहायक था। हम लोगों की सबसे बड़ी कमी थी और वह यह कि हम सब युवा थे, निर्धन थे और युवकों की सारी अनम्रता हममें मौजूद थी। जिसको जीवन में खुद अपनी राह बनाकर चलना पड़ता है, वह थोड़ा विनीत हो ही जाता है, उसे कोमल, नम्र और मिष्टभाषी बनने का अधिक अवकाश कहाँ? जीवन में तुमने सदैव यह देखा होगा। वह तो एक अनगढ़ हीरा है, उसमें चिकनी पालिश नहीं। वह मामूली सी डिबिया में रखा एक रत्न है।
और हम लोग ऐसे थे। समझौता नहीं करेंगे - यही हमारा मूलमन्त्र था। यह आदर्श है और इसे चरितार्थ करना ही होगा। यदि हमें राजा भी मिले, तो भी हम उससे अपनी बात कहे बिना नहीं रहेंगे, भले ही हमें प्राणदण्ड क्यों न दिया जाए। और यदि कृषक मिला तो भी यही कहेंगे। अतः हमारा विरोध होना स्वाभाविक था।
पर ध्यान रखो, जीवन का यही अनुभव है। यदि सचमुच तुम परहित के लिए कटिबद्ध हो, तो सारा बह्माण्ड भले ही तुम्हारा विरोध करे, तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं होगा। यदि तुम निस्वार्थ और हृदय के सच्चे हो तो तुम्हारे अन्तर में निहित परमात्मा की शक्ति के समक्ष, ये सारी विघ्न-बाधाएं नष्ट-भ्रष्ट हो जाएंगी। हम युवक बस ऐसे ही थे। प्रकृति की गोद से पवित्रता और ताजगी लिए हुए, शिशुओं के समान थे। हमारे गुरुदेव ने कहा, ‘’मैं प्रभु की वेदी पर उन्हीं पुष्पों को चढ़ाना चाहता हूँ, जिनकी सुगन्ध अभी तक किसी ने नहीं ली, जिन्हें अपनी अंगुलियों से किसी ने स्पर्श नहीं किया।’’ उन महात्मा के ये शब्द हमें जीवन देते रहे। उन्होंने कलकत्ते की गलियों में समेटे हुये हम बालकों के जीवन की सारी भावी रुपरेखा देख ली थी। जब वे कहते, “देखना इस लड़के को, उस लड़के को – आगे जलकर क्या होगा यह”, तब लोग उन पर हँसते थे। पर उनकी आस्था और विश्वास अडिग था। वे कहते, “यह तो मुझसे माँ (जगन्माता) ने कहा है। मैं निर्बल हूँ सही, पर जब वह ऐसा कहती है – उससे भूल हो नहीं सकती – तो अवश्य ऐसा ही होगा।”
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