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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


क्यों, यह क्या दर्शाता है? इससे यही ज्ञान होता है कि हम मुक्ति के लिए उतना ही प्रयत्न कर सकते हैं, उतनी ही शक्ति लगा, सकते हैं, जितना एक व्यक्ति धनोपार्जन के लिए। हम जानते हैं कि मरने के उपरान्त हमें धन इत्यदि सभी कुछ छोड़ जाना पड़ेगा, तिस पर भी देखो, हम इनके लिए कितनी शक्ति खर्च कर देते हैं। अत: हम उन्हीं व्यक्तियों को उस वस्तु की प्राप्ति के लिए, जिसका कभी नाश नहीं होता और जो चिर-काल तक हमारे साथ रहती है, क्या सहस्रगुनी अधिक शक्ति नहीं लगानी चाहिए? क्योंकि हमारे अपने शुभ कर्म, हमारी अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ - यह सब हमारे ऐसे साथी हैं, जो हमारे देह-नाश के बाद भी हमारे साथ आते हैं। और शेष सब कुछ तो देह के साथ यहीं पड़ा रह जाता है।

आदर्शोपलब्धि के लिए वास्तविक इच्छा - यही हमारा पहला और एक बड़ा कदम है। इसके बाद अन्य सब कुछ सहज हो जाता है। इस सत्य का आविष्कार भारतीय मन ने किया। वहाँ भारतवर्ष में, सत्य को ढूँढ निकालने में मनुष्य कोई कसर नहीं उठा रखते। पर यहाँ पाश्चात्य देशों में मुश्किल तो यह है कि हरएक बात इतनी सीधी कर दी गयी है। यहाँ का प्रधान लक्ष्य सत्य नहीं, वरन् भौतिक प्रगति है। संघर्ष एक बड़ा पाठ है।

ध्यान रखो, संघर्ष इस जीवन में एक बड़ा लाभ हैं। हम संघर्ष में से होकर ही अग्रसर होते हैं- यदि स्वर्ग के लिए कोई मार्ग है, तो वह नरक में से होकर जाता है। नरक से होकर स्वर्ग - यही सदा का रास्ता है। जब जीवात्मा परिस्थितियों से मुकाबला करते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है, जब मार्ग में इस प्रकार उसकी सहस्रों बार मृत्यु होने पर भी वह निर्भीकता से संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है और बढ़ता जाता है, तब वह महान् शक्तिशाली बन जाता है और उस आदर्श पर हँसता है जिसके लिए वह अभी तक संघर्ष कर रहा था, क्योंकि यह जान लेता है कि वह स्वयं उस आदर्श से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। मैं - स्वयं मेरी आत्मा ही लक्ष्य है, अन्य और कुछ भी नहीं; क्योंकि ऐसा क्या है, जिसके साथ मेरी आत्मा की तुलना की जा सके? सुवर्ण की एक थैली क्या कभी मेरा आदर्श हो सकती है? कदापि नहीं। मेरी आत्मा ही मेरा सर्वोच्च आदर्श है। अपने प्रकृत स्वरुप की अनुभूति ही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है।

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