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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


“अरे तुम लोग पहले ईश्वर के राज्य औऱ धर्म की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो, और शेष ये सब वस्तुएँ तुम्हारे पास अपने आप ही आ जायँगी।”

जो किसी की परवाह नहीं करता, उसी के पास सभी आते हैं। भाग्य एक नखरेबाज स्त्री के समान है; जो उसे चाहता है, उसकी वह परवाह ही नहीं करती; पर जो व्यक्ति उसकी परवाह नहीं करता, उसके चरणों पर वह लोटती रहती है। जिसे धन की कोई कामना नहीं, लक्ष्मी उसी के घर छप्पर फोड़कर आती है। इसी प्रकार नाम-यश भी अयाचक के पास ढेर-के ढेर में आता है, यहाँ तक कि यह सब उसके लिए एक कष्टप्रद बोझा हो जाता है। सदैव स्वामी के पास ही यह सब आता है। गुलाम को कभी कुछ नहीं मिलता।

स्वामी तो वह, जो बिना उन सब के रह सके, जिसका जीवन संसार की क्षुद्र सारहीन वस्तुओं पर अवलम्बित नहीं रहता। एक आदर्श के लिए और केवल उसी एक आदर्श के लिए जीवित रहो उस आदर्श को इतना प्रबल, इतना विशाल एवं महान् होने दो, जिससे मन के अन्दर और कुछ न रहने पाये; मन में अन्य किसी के लिए भी स्थान न रहे, अन्य किसी विषय पर सोचने के लिए समय ही न रहे।

क्या तुमने देखा नहीं किस प्रकार कुछ लोग धनी बनने की वासनारूपी अग्नि में अपनी समस्त शक्ति, समय, बुद्धि, शरीर, यहाँ तक कि अपना सर्वस्व स्वाहा कर देते हैं। उन्हें खाने-पीने तक के लिए फुरसत नहीं मिलती। पक्षियों के कलरव से पूर्व ही उठकर वे बाहर चले जाते हैं और काम में लग जाते हैं। इसी प्रयत्न में उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग काल के कराल गाल में प्रविष्ट हो जाते हैं; और शेष लोग यदि पैसा कमाते भी है, तो उसका उपभोग नहीं कर पाते। कैसा मजा है। मैं यह नहीं कहता कि धनवान बनने के लिए प्रयत्न करना बुरा है। यह बहुत ही अद्भुत है, आश्चर्यजनक है।

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