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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


शिष्य ने गुरु का मन्तव्य पूर्णतया नहीं समझा। एक दिन दोनों नहाने के लिए एक नदी में गये। गुरु ने शिष्य से कहा,”डुबकी लगाओ” और शिष्य ने डुबकी लगायी। एकदम गुरु ने शिष्य के सिर को पकड़ लिया और उसे पानी में डुबाये रखा। उन्होंने शिष्य को ऊपर नहीं आने दिया। जब वह लड़का ऊपर आने की कोशिश करते-करते थक गया, तब गुरु ने उसे छोड़ दिया औऱ पूछा, “अच्छा, मेरे बच्चे, बताओ तो सही तुम्हें पानी के अन्दर कैसा लग रहा था?”

“ओफ ! एक साँस लेने के लिए मेरा जी निकल रहा था”

”क्या ईश्वर के लिए भी तुम्हारी इच्छा उतनी ही प्रबल है?”

“नहीं गुरुजी।”

”तब ईश्वरप्राप्ति के लिए वैसी ही उत्कट इच्छा रखो, तुम्हें ईश्वर के लिए वैसी ही उत्कट इच्छा रखो, तुम्हें ईश्वर के दर्शन होंगे।”

जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते, वह वस्तु हमें प्राप्त होगी ही। यदि हमें उसकी प्राप्ति न हो, तो जीवन दूभर हो उठेगा - जीवनरूपी टिमटिमाता दीपक बुझ जायेगा।

यदि तुम योगी होना चाहते हो, तो तुम्हें स्वतन्त्र होना पड़ेगा, और अपने आपको ऐसे वातावरण में रखना होगा, जहाँ तुम सर्व चिन्ताओं से मुक्त होकर अकेले रह सकते हो। जो आराममय औऱ विलासमय जीवन की इच्छा रखते हुए आत्मानुभति की चाह रखता है, वह उस मूर्ख के समान है, जिसने नदी पार करके के लिए, एक मगरमच्छ को लकड़ी का लठ्टा समझकर पकड़ लिया।

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