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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586
आईएसबीएन :9781613012437

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


यदि यह सच है, तो मन के लिए यह प्राणपण से प्रयत्न करने के लिए काफी प्रलोभन है, परन्तु कोई बड़ा यश सम्पादन करना जिस तरह प्रत्येक विज्ञान में कठिन है, उसी तरह इस क्षेत्र में भी। इतना ही नहीं, बल्कि यहाँ तो और भी अधिक कठिन है। फिर भी अनेक लोग समझते है कि ये शक्तियाँ सुगमता से प्राप्त की जा सकती हैं। सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए तुम्हें कितने वर्ष व्यतीत करने पड़ते हैं? जरा इसका विचार करो। बिचली या यन्त्र सम्बन्धी ज्ञान के लिये तुम्हें कितने वर्ष बिताने पड़ते हैं? औऱ फिर सारी उम्र उसे अमल में लाते रहना पड़ता हैं।

पुनश्च, इतर विज्ञानों का विषय है, स्थिर वस्तुएँ - ऐसी वस्तुएँ जो हलचल नहीं करतीं। तुम कुर्सी का पृथक्करण कर सकते हो, कुर्सी दूर नहीं भाग जाती। परन्तु यह मनोविज्ञान मन को अपना विषय बनाता है-वह मन, जो सदा चंचल है। ज्यों ही तुम उसका अध्ययन करना चाहते हो, वह भाग जाता है, अभी मन में एक वृत्ति विद्यमान है, फिर दूसरी उदित हो जाती है। इस तरह मन सर्वदा बदलता ही जाता है। उसकी इस चंचलता में ही उसका अध्ययन करना पड़ता है, उसे समझना पड़ता है, उसका आकलन करना पड़ता है, उसको अपने वश में लाना पड़ता है। अतएव देखो, यह शास्त्र कितना अधिक कठिन है। यहाँ कठोर अभ्यास की आवश्यकता है।

लोग मुझसे पूछते हैं कि आप प्रत्यक्ष प्रयोग कर क्यों नहीं सिखलाते? अजी! यह कोई मजाक नहीं है। मैं इस मंच पर खड़े-खड़े व्याख्यान देता हूँ औऱ तुम सुनकर घर चले जाते हो; तुम्हें कोई लाभ नहीं होता, और न मुझे ही। तब तुम कहते हो, “यह सब पाखण्ड है।” ऐसा इसलिए होता है कि तुम्हीं इसे पाखण्ड बनाना चाहते थे।

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