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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''सच! जो भी मांगूं मिल जायेगा...''

''हां! पर देखना, कहीं मोटरगाड़ी न माँग लेना... तुम्हारा भैया अभी इतना अमीर नहीं... ''

''तो क्या... हृदय तो अमीरों का है.. और मैं भी ऐसी वस्तु नहीं मागूंगी जो दी न जा सके...''

''तो मांगो...''

''डरती हूं कहीं इंकार न हो जाए।''

''तुम कहो तो... क्या वचन देकर मैं फिर जाऊंगा?''

''तो...''

''हाँ-हाँ... कहो... झिझको नहीं...''

''गंगा को अपना लो भैया!''

रूपा की बात सुनकर मोहन के चेहरे का रंग बदला नहीं, न ही उसकी आँखों की चमक कम हुई। वह मौन खड़ा रूपा को देखता रहा। रूपा की आंखों में आँसू छलक आये। उसने रुँधे गले से फिर अपनी प्रार्थना दोहराई- ''भैया, गंगा को अपना लो न!''

''बस यही...''

''हाँ भैया! राखी के दिन एक बहन की अपने भैया से यही प्रार्थना है.. यही माँग है...''

''मैं जानता था... तुम आज यही माँगोगी!''

''तो...''

''और यह वचन निभाने को ही आज मैं निकला था... किन्तु गंगा गाँव में नहीं है, कहीं चली गई है... ''

''तुम्हारी गंगा मेरे पास है भैया!''

मोहन आश्चर्य से उसे देखने लगा। रूपा की आंखों में प्रसन्नता के आँसू छलक आए। तभी डिस्पेन्सरी से जीवन आ गया और मोहन से लिपट गया। रूपा गंगा को लेने दूसरे कमरे में दौड़ गई।

मोहन ने जीवन का हाथ अपने हाथों में लेते नम्रता से कहा- ''मित्र! उस दिन तुमने मेरी आंखों के सामने से अन्धकार दूर कर दिया। तुमने ठीक ही कहा था, मैं कायर हूं... अपना घर उजाड़ कर स्वयं ही तमाशा देख रहा था... एक साधारण-सी भूल...'' वह कहते-कहते रुक गया और रूपा की ओर देखने लगा जो वापस लौट आई थी और निराश दीख रही थी।

''गंगा चली गई...'' जीवन की ओर देखते हुए वह बुड़बुड़ाई!

''कहां?''

''काम की खोज में... मालिन के बेटे के साथ...''

''लखन के साथ?'' जीवन ने दोहराया, तो अवश्य मंगलपुर गई होगी.. सीमेंट के कारखाने में कोई काम देखने...''

''मंगलपुर! वह जो नदी के उस पार है, जहां नया कारखाना लग रहा है?'' मोहन ने पूछा।

''हाँ आओ मेरे साथ...''

''नहीं जीवन मुझे अकेले जाने दो...''

''भैया! वह कहीं मनमानी न करे.. और तुम दोनों आपस में फिर कोई और झगड़ा मोल ले लो...'' रूपा बोली।

''नहीं... उसने अपना हृदय कितना ही पत्थर क्यों न बना लिया हो, मैं उसे मोम करना जानता हूँ...'' मोहन की आवाज़ में दृढ़ता थी। उसने जीवन से हाथ मिलाया और उसी समय मंगलपुर जाने के लिए लौट पडा।... अपनी बिगडी हुई दुनिया को सँवारने...

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