ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
रक्षा-बन्धन का दिन भी आ पहुँचा। घर में सवेरे से ही चहल-पहल थी। तनिक भी आहट होती तो रूपा चौंक जाती और द्वार की ओर देखने लगती, किन्तु मोहन को न देखकर फिर उदास हो जाती। ज्यों-ज्यों सूर्य ऊपर होता जा रहा था उसकी आशाएँ ढलती जा रही थीं। जब बहुत दिन चढने पर भी मोहन न आया तो वह निराश हो गई और उसने स्वयं उसके पास जाने का निर्णय किया... उसने सोचा वह स्वयं जाकर उसे अपने साथ ले आयेगी और गंगा के सामने खड़ा कर देगी। शगुन का सुन्दर रेशमी जोडा पहन कर वह गाड़ी में बैठने के लिए बाहर निकलना ही चाहती थी कि उसके पाँव वहीं रुक गये। मोहन बरामदे से उसी ओर बढ़ा आ रहा था। रूपा क्षण-भर वहीं खड़ी उसे देखती रही और फिर 'भैया-भैया' कहकर उससे लिपट गई।
दोनों भीतर आ गये। रूपा की प्रसन्नता की कोई थाह न थी। उसने भैया को स्नेह से कुर्सी पर बिठाया और उसकी बाँह पकड़ कर कलाई पर राखी बाँध दी।
''जीवन कहाँ है?'' मोहन ने राखी बंधवाते हुए पूछा।
''डिस्पैन्सरी में... कोई रोगी आ गया था।''
''क्या इन रोगियों को छुट्टी वाले दिन भी चैन नहीं...''
''बेचैन जो ठहरे पीडा से...'' रूपा ने उसके मुँह में मिठाई डालते हुए कहा।
''जीवन कह रहा था, तुम मुझ से नाराज़ हो...'' मोहन ने मुस्करा कर पूछा।
''थी तो... किन्तु...''
''किन्तु भैया को देखते ही सब क्रोध भाग गया, क्यों...''
''हूं...''
मोहन ने जेब में से बटुआ निकाला और खोलकर रूपा की ओर बढ़ाया। रूपा चुपचाप बटुए में रखे नोटों को देखने लगी और फिर भैया की ओर देखकर मुस्कराने लगी।
''देखती क्या हो... जितने चाहो निकाल लो...'' मोहन ने कहा।
''नहीं भैया! वह दिन और थे... ब्याह के बाद बहनें भाइयों से पैसे लें, यह अच्छा नहीं लगता।''
''क्या चाहिए... साड़ी, गहना... जो मन में आये माँग लो... ला दूंगा..''
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