लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ

काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

सोलह

आकाश निखरा हुआ था। सुनहरी किरणों के झुरमुट में दूर तक घाटी जगमगा रही थी। नदी किनारे पहाड़ी के आँचल में एक विशाल सीमेंट फैक्ट्री खड़ी हो रही थी सैकड़ों की संख्या में मज़दूर काम पर लगे हुए थे।

कारखाने की दाहिनी ओर कई स्थानों पर पत्थरों को चूरा करने वाली मशीनें लगी हुई थीं जिसकी प्रतिध्वनि से घाटी थरथरा रही थी। एक ऊंचे टीले पर फूस के छत के बड़े कमरे के बरामदे में प्रताप खड़ा गर्व से नीचे होते हुए काम को देख रहा था। भविष्य में भारत की योजना के विकास में उसका भी हाथ था। करोड़ों रुपयों के इस महान् कारखाने का वही मालिक था।

अचानक दफ्तर के सामने खड़ी भर्ती होने बालों की पंक्ति को देखकर वह चौंक गया। इसमें एक उसकी जानी-पहचानी सूरत भी थी... यह थी गंगा। गंगा को देखते ही प्रताप के लहू की गति तीव्र हो गई। उसके मुंह में लार भर आई और आंखों में वासना झलकने लगी। मुंशी बारी-बारी से ध्यानपूर्वक देखकर भरती होने वालों को छांट रहा था। प्रताप ने एक कागज पर कुछ लिखा और मुंशी के पास भिजवा दिया। मुंशी ने पहले तो ऐनक ऊपर-नीचे करके कागज को पढ़ा और फिर पंक्ति में पाँचवें स्थान पर खड़ी लड़की को ध्यानपूर्वक देखा। आगे खड़े व्यक्तियों का शीघ्र निपटारा करके उसने लडकी को सम्बोधित किया-

''नाम?''

''गंगा...''

''गाँव? ''

''चन्दनपुर।''

''आयु? ''

''सत्रह वर्ष।''

मुंशी ने एक बार ऐनक को नाक पर ठीक दिया और फिर ध्यानपूर्वक गंगा को देखा। गंगा ने झेंपकर आंचल को वक्ष पर फैला लिया।

''जान-पहचान?''

''लखन भैया।''

''शायद अभी कुंआरी हो?''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book