ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा का मुख लाज से लाल हो गया। लखन ने उसे अपने आप को कुंआरी ही प्रकट करने का परामर्श दिया था। ब्याहता स्त्री को नौकरी मिलने की सम्भावना कम ही थी किन्तु इतना बड़ा झूठ गंगा के मुख से न निकल पाया। मोहन भले ही उस से अलग है, पर है तो वह उसका पति। उसके होंठ बिना कोई स्पष्ट शब्द कहे कंपकंपा कर रह गये। उसके चेहरे पर घोर दुःख था। मुंशी कुछ देर मौन रहकर स्वयं ही बोला-
''कोई बात नहीं.. दुखियारी अवश्य हो किन्तु शरीर तो स्वस्थ है... मन लगा कर काम करो।'' यह कहकर मुंशी ने एक पर्चा काटा और उसे टीले पर फूस की छत वाले दफ्तर में जाने का संकेत किया। गंगा की निराश पुतलियों में आशा की ज्योति लौट आई।
पर्चा लेकर प्रसन्न मुद्रा में वह टीले पर चढ़ गई। दफ्तर में प्रवेश करते ही वह मूर्तिवत् स्थिर खड़ी हो गई। हृदय धक् से रह गया। वह यह सोच भी न सकती थी कि जिस व्यक्ति से आजीविका की भीख मांगने आई है, उसके जीवन को नष्ट करने, उसके बापू की हत्या का उत्तरदायित्व उसी पर है। वह मौन खड़ी उस नीच को देखती रही। गंगा को सामने देखकर प्रताप ने शुष्क होठों पर ज़बान फेरी। गंगा एकाएक वापस जाने को पलटी। प्रताप ने रोकते हुए पूछा- ''क्यों, काम नहीं चाहिए?''
वह रुक गई और कड़ी दृष्टि डालते हुए प्रताप के निकट आ खड़ी हुई। उसकी आँखों में लहू उतर आया था।
''चाहिए... क्या मज़दूरी होगे?'' गंगा के होंठों पर एक विषैली मुस्कराहट उभर आई।
''यूं तो दो रुपये दिन के देते हैं, किन्तु तुम्हें तीन मिला करेंगे।''
''बस?'' तीखेपन से गंगा ने पूछा।
''चलो चार दे देंगे... किन्तु एक शर्त है...''
''क्या?'' गंगा उसके और समीप आ गई।
''तुम हमें ऐसी ही तिरछी दृष्टि से दिन में एक-आध बार देख लिया करो।''
''बस? केवल देख लेने से ही मन भर जायेगा?''
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