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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''लगता है जीवन की कठोरता को खूब समझ गई हो... बाबरी! तूने हम पर कृपादृष्टि रखी... तो हम भी पीछे न हटेंगे... प्राण न्योछावर कर देंगे तुझ पर... यह तो केवल मुस्कान का मूल्य है... चाहो तो चार के चालीस बना सकती हो।''

गंगा ठहाका लगाकर हंस पडी, जैसे पागल हो गई हो। फिर हँसते-हँसते बोली- ''जीवन ने भी मुझसे क्या मज़ाक किया है... बापू की बीमारी के लिए पांच-दस रुपयों की आवश्यकता पड़ी और अपना सब कुछ लुटाना पडा... आज इस लुटे हुए जीवन का मूल्य इतना पड़ रहा है, इतना अधिक... इतना... कि...''

''नहीं गंगा। यह जीवन लुटा नहीं... इस पर और निखार आ गया है... तब तो यह प्यारे हावभाव न थे...''

गंगा ने जोर से गर्दन को झटका दिया और एकाएक कड़की- ''हां... तब मैं भोली-भाली नादान लड़की थी... गांव की फुलवाड़ी पर नाचने वाली तितली... उस उद्यान की एक कोमल कली थी जिसे तुमने रास्ते का फूल समझ कर पांव से रौंद डाला... बुरा-भला कुछ भी तो ज्ञान न था मुझे... और नीच चाण्डाल! तूने मेरी इज्जत तक छीन ली...'' यह कहते-कहते वह क्षण-भर के लिए रुकी। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। यह बदले हुए तेवर देखकर प्रताप का कलेजा धड़का और वह संभल कर बैठ गया। गंगा उसके बिल्कुल समीप आ गई और आँखों से ज्वाला बरसाती हुई बोली, ''वही दफ्तर... वही तू है... मैं भी हूँ... अकेली हूँ; किन्तु अब मैं वह भोली गंगा नहीं... बुरा-भला समझने लगी हूँ... अब मैं वह अबोध लड़की नहीं... औरत हूँ... औरत... ले आज मुझे छू कर देख! तुझ में साहस है तो अब इस औरत पर हाथ उठा... पापी दुष्ट...'' प्रताप घबराकर इधर-उधर देखने लगा। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया था और वह इस सिंहनी से बचने का उपाय सोच रहा था। गंगा फिर चिल्लाई, ''हां, हां! देखता क्या है... छूकर बता नीच कुत्ते... कहाँ है तेरा साहस...''

प्रताप हडबडा कर उठा और बाँह से उसे परे रहने का संकेत करते हुए चिल्लाया- ''अरे रे... क्या पागलपन है...दिमाग तो नहीं चल गया तेरा... कोई है? इसे हटाओ... बहादुर... कलुआ... जुम्मन...''

प्रताप का रोआं-रोआं काँप रहा था। उसका शरीर डर से पसीना-पसीना हो गया। हट्टा-कट्टा, लम्बा-तगड़ा यह पुरुष गांव की एक साधारण लड़की के सामने ज़मीन में धँसा जा रहा था। अनायास गंगा के होंठों पर मुस्कराहट उभर आई। उसने एक पग और आगे बढ़ाया और प्रताप के मुंह पर थूक दिया।

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