ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
जीवन ने अपनी भावना को वश में किया और बोला- ''क्षमा करना, मित्र! भावना में बहकर मैं जाने क्या-क्या कह गया। शायद डाक्टर हूँ इसलिए किसी की पीड़ा नहीं देख सकता। आया था तुम्हारी कुशलता पूछने और तुम्हारे घाव कुरेदने लग गया...''
''नहीं जीवन, ऐसी बात नहीं...''
''अच्छा, मैं चला... राखी के दिन आना न भूलना?''
''अभी कुछ देर ठहरो, ऐसी भी जल्दी क्या है?''
''दवाखाने में रोगी प्रतीक्षा में होंगे।'' जीवन यह कहकर चला गया।
मित्र के चले जाने पर मोहन के मन में खेद हुआ। वह तो उसी की भलाई के लिए समझा रहा था। जीवन के कहे हुए शब्द उसके कानों को छेदने लगे। उसकी सोचने की शक्ति लगभग समाप्त हो गई थी। इसी हड़बड़ाहट में वह अपने दफ्तर से बाहर चला आया।
कारखाने में मशीनों ने शोर मचा रखा था। इनकी गड़गड़ाहट में भी उसके मस्तिष्क पर छाया गुबार न छंटा बल्कि जीवन के कहे हुए शब्द उसे और भी चिन्तित करने लगे। ज्यों-ज्यों मशीनों का शोर बढता जा रहा था त्यों-त्यों इन शब्दों की गूंज बढ़ती जा रही थी। अनमना-सा उस रोलर को देखने लगा जो गन्ने का सब रस निकाल कर छाल को एक ओर फेंक रहा था। उसे लगा जैसे ज़माने ने उसे भी रस निकाल कर व्यर्थ फोक के समान समय के ढेर पर फेंक दिया है।
घर पहुँचते ही रूपा ने जीवन से पूछा-''भैया मिले क्या?''
''हाँ... तुमसे न मिल सकने की क्षमा माँग रहा था।''
''गंगा के विषय में कोई बात हुई?''
''हुई... किन्तु बात बनी नहीं...''
''क्या कहा भैया ने?''
''मन खोलकर कुछ भी नहीं कहा। अभी उसके मन से बात गई नहीं... मैंने भी एक ही भेंट में सब कुछ कह देना उचित न समझा, सोचा, यह सब तुम पर छोड हूं...''
''तो क्या वह...''
''हां! शायद राखी पर वह तुम्हें मिलने को आये। गंगा भी यहीं होगी। उसी समय इस समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करेंगे। उपाय निकल आयेगा।''
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