लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ

काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

रूपा ने कोई उत्तर न दिया और चुपचाप खड़ी सोचती रही। इसी समय गंगा साथ वाले कमरे में शरत् के लिए फल लेने के लिए आ गई। जीवन की ज़बानी मोहन का नाम सुनकर वहीं ठिठक गई। उसे कुछ ठेस-सी लगी और अपने प्रति मोहन के विचार जानकर अंधकार में टिमटिमाता ज़रा-सा आशा का दीपक भी बुझ गया। हृदय पर एक हाथ रखे वह शरत् के कमरे की ओर लौटी। बरामदे में रूपा से सामना हुआ। निराश मुख पर मुस्कराहट उत्पन्न करते हुए रूपा ने पूछा- ''शरत् ने दवाई पी ली।''

''हाँ रूपा! अब तो वह खेलने भी लगा है... सोचती हूं, कल शहर चली जाऊं...''

''फिर वही रट.. दो-एक दिन में रक्षा-बन्धन है...''

''हूं...''

''मोहन भैया हमारे यहाँ आ रहे हैं...''

रूपा की इस बात पर गंगा उदास मुख से सखी की आंखों में उत्पन्न हुई चमक को देखने लगी। कुछ देर बाद रूपा ने स्वयं ही कहा-

''तुम्हारे भैया शहर गये थे मोहन से मिलने, उसकी बातों से पता चलता है कि वह अब पछता रहा है। तुम्हारी याद में व्याकुल है। वह इसे मन से नहीं निकाल पाया, तुम्हें देखते ही उसका हृदय पिघल उठेगा...''

''रूपा! यह तुमने अच्छा नहीं किया...'' गंगा गम्भीर हो गई।

''क्या?''

''अपनी सखी को किसी दूसरे के सम्मुख लज्जित करने से तुम्हें क्या मिल गया रूपा? मेरा पाप अपने पति के सामने नंगा करने से तो अच्छा था कि मुझे...'' वह इससे आगे कुछ न कह सकी। उसका गला सूख गया, पलकें भीग गईं रूपा ने आगे बढकर उसका हाथ थाम लिया और बोली ---

''बहन! वह कोई दूसरे नहीं। अपने ही हैं... तुम्हारा दुःख सुन कर उनसे रहा न गया और वह मोहन को समझाने चले गये... सच कहती हूँ, यह बात जानकर तुम उनकी दृष्टि में गिरी नहीं हो बल्कि उनके मन में तुम्हारे लिए सम्मान और सहानुभूति है। कल मुझसे कह रहे थे कि अब गंगा को जाने नहीं दूंगा...''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book