ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''हां, मोहन! शहर लाना है तो दोनों को लेकर आओ। यही काकी की इच्छा है ओर यही रूपा की भी।''
''यह सम्भव नहीं जीवन!'' वह सटपटा गया।
''क्यों?''
''अब मैं तुम्हें क्योंकर समझाऊँ...''
''यही न कि गंगा के आंचल पर दाग है... वह किसी अत्याचारी का शिकार हुई और तुम कायरों की तरह उसे निःसहाय छोड़कर चले आये हो....''
''जीवन।'' मोहन के स्वर में पीड़ा थी वह कुछ कहना चाह कर भी न कह पा रहा था।
उसकी मनोदशा का अनुमान लगाकर जीवन बोला- ''तैरने वाले का सहारा लेकर तो सभी पार हो जाते हैं मानव वही कहलाता है जो कि डूबते को सहारा दे।''
''सहारा देने वाले कभी स्वयं भी डूब जाते हैं...''
''किन्तु वे लोग भाग्यशाली हैं, जो प्रेमसागर में डूबकर जीवन का रहस्य पा लेते हैं।''
''इसे प्रेम न कहो, यह तो मेरे जीवन का उपहास बनकर रह गया...''
''उपहास तो तुमने स्वयं अपने-आप को बना लिया है। वास्तविकता से मुंह मोड़ना मानव के बस की बात नहीं है। यदि तुम उसे अपनाने का बल नहीं रखते, तो उसे भुला देने का साहस भी तो तुम में नहीं है... वह चाहे गाँव में हो या किसी दोराहे पर खड़ी भीख माँग रही हो... दर-दर की ठोकर खा रही हो... अथवा समाज के प्रति विद्रोही प्रतिक्रिया से कोई कुमार्ग अपना ले, पर है तो तुम्हारी पत्नी ही। क्या इस सत्य को तुम भुला सकोगे कि वह तुम्हारी जीबन-संगिनी नहीं है? तुम्हारे प्रेम-जल से सींचा हुआ वह एक फूल है, जिसे तुमने तोड़कर मार्ग पर फेंक दिया...''
''बस करो जीवन... बस करो...'' मोहन ऊँचे स्वर में चिल्लाया। दोनों कुछ देर मौन खडे एक-दूसरे को देखते रहे। मोहन पसीने से भीग चुका था।
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