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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

पन्द्रह

ज्यूँ ही जीवन ने दफ्तर में पाँव रखा, मोहन को फाइलों में डूबा देखकर बोला-

''क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?''

''ओह, जीवन! आओ, बैठो! कब आये?''

''जब तुम ने देख लिया।''

''अवश्य किसी रोगी को देखने आये होगे।''

''हां, बड़ा ही टेढ़ा केस है।''

''बीमारी का पता चला... ''

''हूँ... किन्तु कोई दवाई काम नहीं आ रही...''

''रोग का निदान भी हो गया, फिर भी काम नहीं बन रहा, तो अवश्य रोगी ही टेढ़ा होगा।''

''तुमने ठीक सोचा।''

''कौन है वह?''

''तुम।''

''मैं...!'' मोहन ने हाथ की फाइलें रखते हुए ध्यानपूर्वक जीवन को देखा। उसने यूं अनुभव किया जैसे जीवन के होठों पर कोई विशेष रहस्य आ रुका हो जिसके प्रकट करने में वह हिचकिचा रहा हो।

''हाँ, मोहन! आज मैं तुम्हीं से मिलने आया हूँ। बहुत दिन हो गए तुम्हें देखे हुए।''

''वास्तव में काम इतना बढ गया है कि अब अवकाश ही नहीं मिल पाता,'' मोहन ने उत्तर दिया और फिर झट से पूछा, ''कहो, रूपा कैसी है?''

''तुम पर बहुत नाराज़ है।''

''उसके ब्याह पर जो न जा सका, इसीलिए न?''

''हां, हमने तो तुम्हें क्षमा कर दिया; किन्तु वह नहीं छोड़ने वाली।''

''किसी दिन आकर उसे भी मना लूंगा।''

''तो शुभ काम में देर कैसी? अगले मंगल को रक्षाबन्धन है, इतवार को वहीं चले आओ न। दो-चार दिन एक साथ रह लेंगे।''

''इतवार को शायद मैं गाँव जाऊँ, काकी वहुत बीमार है। उसे भी अपने साथ लेता आऊँगा।''

''अकेली वह शहर में आकर क्या करेगी?''

''शायद जलवायु-परिवर्तन से कुछ लाभ हो और फिर तुम्हारी देख-भाल में दवा-दारू भी हो जायेगी। गाँव में उसका कौन है?''

''उसकी बहू,.. गंगा....'' जीवन ने रुकते-रुकते कहा।

जीवन के मुख से सहसा गंगा का नाम सुनकर मोहन का रंग काला पड़ गया और वह गम्भीर हो गया।

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