ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''नहीं... यह ठीक न होगा। ऐसी स्थिति में बिना आश्रय के भटकना ठीक नहीं... ''
''आश्रय भले ही टूट चुके हों... पर साहस अब भी बाकी है।''
''ओह...'' एक निश्वास लेते रूपा उसकी मनोदशा का अनुमान लगाने लगी।
गंगा की पलकों में सिमटे आँसू झिलमिला उठे। वह उन्हें शीघ्र ही पी गई और शरत् को संभालने लगी।
''मैं तुम्हें यूं न जाने दूंगी। अगले सप्ताह रक्षा-बन्धन है। मोहन भैया मेरे पास अवश्य आयेंगे। मैं देखती हूँ कि वह तुम्हें कैसे नहीं अपनाते।''
गंगा के कुम्हलाये होठों पर एक उदास मुस्कान खिल कर रह गई। सखी की ओर देखते हुए वह धीरे से बोली--
''जिनकी अँधेरी रातें दीयों के लिए नहीं बनीं, वह भला दिवाली की प्रतीक्षा ही क्यूं करें... ''
''आशा का आँचल नहीं छोड़ते, पगली! जब काकी का हृदय पिघल चुका है तो भैया भी मान जायेंगे।''
गंगा ने कोई उत्तर न दिया। वह शरत् को उठाने लगी। तभी जीवन भीतर से आया और गंगा को तैयार देखकर पूछने लगा- ''यह सब क्या हो रहा है?''
रूपा बोली, ''आप ही इसे समझाइये न। यह यहाँ से जाना चाहती है...''
''कहां?'' जीवन ने प्रश्न किया।
''शहर, शायद कोई काम का सहारा मिल जाये।'' गंगा धीमे स्वर में बोली।
''मान लिया तुम्हें काम चाहिए, तुम बोझ बनना नहीं चाहती, तो ठीक है चली जाना किसी दिन। अभी क्यों?''
''अब मैं आप से क्यों कर कहूँ...मुझे जाना ही होगा...''
''तुम्हें जाने से रोकता ही कौन है, पर शरत् को इस दशा में ले जाना कहाँ तक उचित है?''
''नहीं, डॉक्टर भैया...''
''यह मैंने तुम पर कोई उपकार नहीं किया, बल्कि एक डाक्टर के नाते कह रहा हूँ। शरत् की बीमारी को ठीक करने का उत्तरदायित्व अब मुझ पर है। मैं उसे इस दशा में ले जाने की आज्ञा कदापि नहीं दे सकता।'' यह कहकर जीवन बाहर चला गया।
गंगा जीवन का यह दृढ़ निर्णय सुनकर मौन खड़ी रही। रूपा ने शरत् को फिर से चारपाई पर लिटा कर कपडा ओढ़ा दिया और सखी की ओर मुस्करा कर देखते हुए बोली- ''क्या सोचती है... देखती क्या है; जा तू मंजू को नहला दे, मैं तब तक शरत् के पास बैठती हूँ।''
गंगा चुपचाप सिर झुकाये कमरे से बाहर चली गई।
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