ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
चौदह
आकाश बादलों की गरज से फटा जा रहा था। वर्षा थी कि आज ही पूरे बल से बरस लेना चाहती थी। इस पर तेज हवा और भी गजब ढा रही थी। रात तूफानी थी, अंधेरी और डरावनी।
गंगा एक खण्डहर में दोनों बच्चों के साथ दुबकी बैठी थी।
शताब्दियों पुराना यह टूटा-फूटा खण्डहर उसे तूफान के इन तीव्र थपेड़ों से बचाये हुए था। वे तीनों बिल्कुल भीग चुके थे। शरत् को बड़ा तेज बुखार था। गंगा ने उसे बाँहो में लपेट कर छाती से चिपका रखा था। मंजू भी उसके साथ लगी ठिठुर रही थी। उसने अपनी छोटी-सी ओढ़नी भी भैया को ओढ़ा दी थी।
घोर-अँधेरे में भी, वर्षा से धुली, शहर जाने वाली पक्की सड़क दिखाई दे रही थी। गंगा की दृष्टि बार-बार उस सडक पर उठती... क्या जाने भगवान् इसी समय यहीं पर कोई सहायता भेज दे... भँवर में, इतना कुछ हो जाने पर भी ठगनी आशा साथ ही थी। शरत् ज्वर से बेसुध था। उसका नन्हा शरीर अंगारों के समान जल रहा था। गंगा की कँपकँपी प्रतिक्षण बढ़ती चली जाती थी.. यह स्थिति, यह विवशता... उन्होंने तो कोई पाप नहीं किया... ईश्वर इतना अन्यायी तो नहीं होगा... जीर्ण नौका डूवते-डूबते क्षण-भर को संभलती और फिर डगमगाने लगती। इस उजाड़ स्थान पर क्या आसरा मिल सकता था... फिर भी वह सड़क की ओर देखे जा रही थी।
अचानक खण्डहर के सामने एक गाड़ी रुकी। गंगा ने शरत् को वहीं लिटाया और सहायता लेने के विचार से बाहर बढ़ने लगी; किन्तु कुछ सोचकर फिर वहीं खड़ी हो गई। उसने देखा कि गाड़ी में से दो व्यक्ति उतरे और खट से गाड़ी का द्वार बंद करके तेजी से खण्डहर की ओर बढ़े। गंगा का हृदय भय से धड़कने लगा। आशा की धीमी सी जो किरण फूटी थी वह स्बयं अंधकार में लीन हो गई। उसने फिर शरत् को उठाया और खण्डहर के कोने में चली गई। मंजू के मुंह पर उसने हाथ रखा कि कुछ बोले नहीं और उसे भी साथ खींच लाई। दोनों व्यक्ति खण्डहर के दूसरे कोने में आ खड़े हुए।
उनके भीतर आते ही हवा के झोंके से शराब की बू आई। उनकी लड़खड़ाहट से अनुभव होता था कि वे दारू पिये हुए हैं। गंगा का भय और बढ़ गया। दोनों शराबी भीतर आये और बकने-झकने लगे। फिर एक ने जेब में से बोतल निकाली और मिल कर पीने लगे। एकाएक एक शराबी ने साथी के चुटकी ली और बोला- ''अमां यार! यूं लगता है, हम यहाँ अकेले नहीं... और कोई भी बारिश से बचने के लिए यहां छिपा बैठा है।''
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