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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

गंगा इससे आगे न पढ़ सकी। उसके सीने में दबी याद की चिंगारी सुलग उठी। उसने पत्र को लपेट कर फिर काकी के तकिये के नीचे रख दिया। वह काकी को अर्ध-सुप्त दशा में छोड़कर घर चली आई।

घर पहुंची तो चौबे जी टांग फैलाये खाट पर बैठे थे। आज यह कुछ प्रसन्न दीख रहे थे। गंगा को देखते ही बोल उठे, ''लो गंगा, हमारे तो पाप कट गये...''

''क्या हुआ चौबे जी?'' गंगा ने आश्चर्य से पूछा।

''कचहरी से डिग्री मिल गई है...तुम्हारा यह पुरखों का मकान...अब अपना हो गया है।''

''ओह...'' गंगा के मुख का रंग एकाएक उड़ गया।

''मकान की नीलामी से पहले सोचा... गंगा से भी पूछ लूं...'' एक विजयी मुस्कान चौबे के मुख पर खेल गई।

''क्या?''

''शायद पैसों का प्रबन्ध हो जाये...''

''यदि वह हो पाता, तो यह स्थिति ही क्यों आती।''

''फिर भी तुम से पूछ लेना मेरा कर्त्तव्य था.. कहो, कितने दिन का और समय दूं?''

''कै दिन दे सकते हैं?''

''सरकारी हिसाब से तो दो दिन, किन्तु बंसी की मित्रता के विचार से दया आ जाती है... सो दो-चार दिन की छूट और दे दूंगा। क्या करूँ गंगा, व्यापार फिर व्यापार है, नहीं तो कौन निर्दयी तुम्हें ऐसे में घर से बेघर कर दे!''

''आप मेरी चिन्ता न करें, चौबे जी! पहले भी आप को मैंने व्यर्थ कष्ट दिया। आप सवेरे ही मकान पर ताला डाल सकते हैं...'' गंगा के स्वर में दृढता थी और यह कह वह भीतर जाने लगी।

''तो क्या...'' वह चौंक कर बुड़बुड़ाया।

''हाँ.. मैं आज रात ही यहाँ से जा रही हूँ...''

''कहाँ...?''

''क्या कुर्की में यह बताना भी लिखा है?'' गंगा ने एक तीखी दृष्टि चौबे पर डाली और दोनों बच्चों को लेकर भीतर चली गई।

चौबे झेंप कर रह गया। आज से पहिले कभी उसने गंगा में ऐसी दृढ़ता न देखी थी।

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