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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''कौन?'' दूसरे ने नशे में झूमते हुए कहा।

''किसी औरत को खुशबू आ रही है...''

औरत के शब्द पर गंगा के शरीर में सनसनी दौड़ गई और वह सांस रोक कर दीवार के साथ लगकर दुबक गई।

''हत्! यह औरत की बास नहीं, अपनी लाल परी का नशा है... ज़ालिम बरसाती रात में एक खूबसूरत औरत का मज़ा दे रही है।'' यह कहते हुए दूसरे शराबी ने झट से शेष शराब अपने गले में उँड़ेल ली और खाली बोतल को एक ओर फेंक दिया। बोतल गंगा के समीप आकर गिरी और टूट गयी। गंगा का कलेजा जोर से धडकने लगा; किन्तु जब लड़खड़ाते हुए शराबी ने अपने साथी को गाडी की ओर खींचा और उसे बाहर ले गया तो गंगा की थमी हुई साँस फिर चलने लगी।

वर्षा का जोर घट चुका था किन्तु जब तक गाड़ी की आवाज दूर न चली गई, गंगा अंधेरे से बाहर न निकली। शरत् का शरीर अभी तक बुखार से तप रहा था। वह धीरे-धीरे सरकती हुई बाहर आ गई और सड़क की ओर देखने लगी।

आशा की डूबती हुई किरण फिर उभरी। हल्की बौछार में एक फिटन शहर की ओर बढ़ी जा रही थी। शायद इसमें भी कोई घर लौटता हुआ आवारा शराबी हो, यह सोचकर गंगा ठिठकी; किन्तु फिर उसने साहस बटोरा और शरत् को मंजू की गोद में लिटा कर भीगती हुई सड़क के किनारे आ खडी हुई।

फिटन तेजी से उसके पास से गुज़रा ही चाहती थी कि उसने कोचवान को रुक जाने के लिए पुकारा। गाडी वहीं रुक गई और भीतर सीट पर बैठे हुए व्यक्ति ने आश्चर्य से गंगा की ओर देखा। गंगा क्षण-भर के लिए रुकी रही, फिर उस व्यक्ति के पाँव छूकर विनती करने लगी-

''मेरा शरत् बुखार से जल रहा है..? मेरा भैया मौत की हिचकियां ले रहा है.. भगवान् के लिए उसे बचा लीजिये.. मैं गरीब हूं मेरा कोई घर-बार नहीं... इस स्थान पर लाचार पडी हूँ.. हमें शहर तक ले चलिए... किसी हस्पताल तक... बड़ी दया होगी.. बड़ा उपकार होगा आपका...'' शब्दों ने उसका अधिक साथ न दिया और उसकी आवाज़ सिसकियों में डूब कर रह गई।

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