ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
चार दिन और चार रातें बीत गईं, गंगा ने न घर को संवारने की सुध ली न तन की। वह खेत पर काम करने भी न गई। रूपा के बिना यह गाँव उसे काटे खाता था। मंजू दो दिन से स्कूल नहीं गई और शरत् गली मोहल्ले के लड़कों के साथ खेल-कूद में व्यस्त था। गंगा को किसी की चिन्ता न थी। चौबे जी भी इन दिनों, दो-चार बार कचहरी की धमकी दे गये थे। उसका दिल अब इस गांव से उठ चुका था; परन्तु उसे समझ न आता था वह कहां जाय।
दो दिन के पश्चात् उसे एक बुरा समाचार मिला कि काकी, रात के अँधेरे मे सीढ़ियां उतरते समय गिर पडी हैं। आंखों की ज्योति तो पहले ही कम थी। सिर की चोट से उसे और धक्का लगा। गंगा का मन चाहा कि वह काकी को ऐसी दशा में देखने जाये, किन्तु साहस न पड़ा। उसका पूरा दिन असमंजस में कटा कि जाये या न जाये। जब उससे और धैर्य न हुआ, तो सांझ ढले काकी के यहां पहुंच गई। काकी चारपाई पर बेसुध-सी पड़ी थी। सिर के घाव के कारण पट्टी बँधी थी। गंगा के आने से आहट हुई। काकी ने लेटे हुए ही बंद आखें किये पूछा, ''कौन है?''
''मैं हूँ... चम्पा..'' गंगा ने डर के मारे रूपा की अन्य सखी का नाम ले दिया। काकी ने उसे निकट आने को कहा और पूछा- ''रूपा की चिट्ठी आई है क्या तुम्हें?''
''नहीं...''
''तुम्हें भी नहीं आयी... मुझे भी उसने कोई चिट्ठी नहीं लिखी।'' गंगा मौन रही। काकी का मुख प्यास से सूखा जा रहा था। झट से गंगा ने पास ही तिपाई पर रखा पानी का गिलास उठाया और चम्मच से कुछ पानी काकी के मुंह में डाल दिया।
''चम्पा...!''
''हूँ... ''
''तूने कैसे जाना, मुझे प्यास लगी है?'' काकी ने पूछा।
''आपके होंठ सूख रहे थे, इसलिए...''
''क्या साँझ हो गई...बेटी...?''
''हाँ, अँधेरा होने को आया है... दीया ले आऊं...''
''जब आंखों में ही ज्योति न रही तो दीपक का क्या करूं...'' एक गहरा निःश्वास लेकर काकी ने कहा।
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