ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
कहारों ने डोली उठाई। मुहल्ले वाले गली के छोर तक बेटी को विदा करके लौट आये। गंगा अधखुले किवाड़ से यह दृश्य देखती रही। स्त्रियों के घेरे में आँसू बहाती काकी को लौटते देखकर उसका मन भर आया। जब गली में कोई न रहा तो कुछ सोचकर गंगा धीरे-से बाहर निकली और पिछवाड़े की गली में हो ली।
गाँव वालों की दृष्टि से बचती हुई वह दूर निकल आई और छोटे मार्ग से बढ़कर कहारों के आगे ईख के खेत में छिप गई। थोडी देर बाद पीछे से डोली उठाए कहार आये और बढ गये। गंगा भी थोड़े अन्तर पर फसल में छिपती-छिपती उनके पीछे हो ली।
गांव वाले अब दूर रह गये थे और कहार अकेले ही डोली उठाये चल रहे थे। गंगा झट मोड़ काटकर बाहर के उस पुल पर आ खड़ी हुई जहां से कि डोली को गुजरना था। उसके हाथ में अभी तक वह शाल थी जो उसने बडे स्नेह से अपनी सखी के लिए बुनी थी और आंखें उस डोली पर लगी थीं जो कहारों के कंधों पर झूल रही थी। कहार पगडंडी पार करके निकट आ गये। गंगा उनके मार्ग के सामने खडी हो गई और उन्हें रुक जाने का संकेत किया। कहारों के रुकते ही रूपा ने पर्दा उठाकर देखा और आश्चर्य से उसके मुंह से निकला-''गंगा!''
गंगा ने बगल में थामी शाल सखी की ओर बढ़ा दी और आंखों में आंसू भर कर बोली-
''रूपा! अपनी सखी की यह निशानी सुसराल न ले जाओगी?'' रूपा सखी से लिपट गई। दोनों की आंखों से आँसुओं की नदी फूट पडी; मानो कोई बांध टूट गया हो। आपस में बिछुड़ने वाली सखियों का वार्तालाप धड़कनों में होता रहा, सिसकियों द्वारा मन की गाथा कही-सुनी जाती रही। होंठ मौन रहे।
साँझ की परछाईं बढ रही थी। कहारों ने डोली उठाई और सिसकियाँ भरती गंगा को वहीं छोड़कर आगे बढ़ गये। रूपा का मार्ग अब और था, उसकी मंजिल और थी। निराश और उदास गंगा चुपचाप उसी पुलिया पर बैठ गई और संध्या के धुंधलके में जाती रूपा की डोली को देखती रही। आज गाँव से उसकी सखी की नहीं बल्कि स्वयं गंगा के अरमानों की विदाई हुई थी।
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