ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
मंजू की इस भोली बात ने गंगा को चौंका दिया। उसे एक आघात-सा लगा और कुछ देर के लिए वह फिर शून्य में खो गई। मंजू ने पूछा- ''हाँ दीदी! वह ब्याह के दिन क्यों रो रही है?''
गंगा ने उसे फिर गले लगाया और नम्रता से बोली, ''इसलिए मंजू कि जो ब्याह से पहले रो लेते हैं उन्हें बाद में आँसू नहीं बहाने पडते।''
मंजू की बाल-बुद्धि में दीदी की यह बात न आई; किन्तु गंगा की गहरी आह ने उसके अन्तर तक को प्रकट कर दिया। इतने में ढोल और शहनाइयों का शोर गूँजा। शायद बारात पहुँच गई थी। मंजू बहन को वहीं छोड़कर बाहर भाग आई। गंगा स्थिर खड़ी रूपा के विषय में सोचने लगी। उसने मन ही मन उसके सुखी जीवन के लिए प्रार्थना की। सखी को मिलने के लिए वह तड़प रही थी, पर समाज की कंटीली बाड़ मार्ग में थी।
बडी देर तक वह बैठी रोती और सोचती रही। आखिर धैर्य का प्याला टूट गया। वह अपने स्थान से उठी, कपड़े ठीक किये, बालों को संवारा और उपहार की शाल बगल में दबा कर सखी से मिलने बाहर निकल आई। सब व्यक्ति बारात के स्वागत के लिए उधर लपक रहे थे सो उसको किसी ने नहीं देखा। लोगों की दृष्टि से बचती हुई वह रूपा के कमरे तक पहुंच गई और बाहर खड़ी होकर भीतर झांकने लगी। अभी वह सोच ही रही थी कि भीतर पाँव रखे या नहीं कि काकी की कड़कती आवाज़ ने उसके पाँव वहीं बाँध दिये। वह कह रही थी-
''क्यों कलमुंही! ऐसी शुभ घड़ी में तू यहां भी अपनी अशुभ छाया ले आई! क्या तू चाहती है कि तेरी तरह इसका डोला भी इस आंगन से बाहर न निकलने पाये...चल भाग यहाँ से...खबरदार जो भीतर पांव बढ़ाया...''
और कुछ सुनना गंगा को सहन न हुआ। वह उन्हीं पांवों अपने घर लौट आई। किबाड़ बन्द करके बडी देर तक रोती रही। यहाँ तक कि तकिया लगभग भीग गया।
दूसरे दिन सबेरे जब गंगा ने किवाड़ खोलकर बाहर झाँका तो उस समय रूपा को डोली में बिठाया जा रहा था। उसने दूर से रूपा को देखा जो स्त्रियों के घेरे में जा रही थी। रूपा की दृष्टि भी उसके किवाड़ की ओर उठी और लौट गई। न जाने इस समय बेचारी के मन पर क्या बीत रही होगी। शायद वह सखी से मिलने के लिए व्याकुल हो, पर उधर पाँव बढ़ाने का साहस न रखती हो। उसके गले में तो अभी-अभी समाज ने जंजीर डाली थी। उसके निर्बल हाथ इस जंजीर को क्योंकर तोड़ सकते थे।
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