ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
रूपा गंगा की एकमात्र सखी थी। दोनों में कितना स्नेह था। उसे वर्षों से सखी के ब्याह की चाह थी। यह प्राय: उसे छेड़ा करती पर आज अब जब भगवान ने यह शुभ अबसर दिखाया तो वह उसे बधाई देने भी न जा सकी। दिन-रात परिश्रम करके गंगा ने इस अवसर पर भेंट करने के लिए रूपा के लिए एक सुन्दर शाल बुनी थी पर अब उसमें साहस न था कि वहां तक चली जाये... शायद उसका वहाँ जाना अपशगुन समझा जाये।
कुछ देर बाद मंजू ब्याह की रौनक देखकर लौट आई और जो कुछ उसने देखा था बाल-उत्साह से दीदी को सुनाने लगी। गंगा की आंखों में आँसुओं की झड़ी उमड़ आई। उसने मंजू को गले लगाकर स्नेह से कहा- ''एक काम मेरा कर दे.. मंजू!''
''क्या दीदी?''
''चुपके से जाकर रूपा दीदी को यह शाल दे आ कहना, मैंने भिजवाई है।''
''न दीदी।''
''क्यों?''
''तुम स्वयं क्यों नहीं चली जातीं. रूपा दीदी से मिल भी लोगी और ब्याह की भेंट भी दे दोगी, मैं जब गई तो वह रो रही थी, और मुझसे उसने धीरे से कहा भी...''
''क्या कहा? ''
''यही कि दीदी को किसी प्रकार थोडे समय के लिए मेरे पास ले आ... ''
''काश! उससे मिल सकती...'' गंगा एकाएक गम्भीर हो गई और स्वयं ही बुड़बुड़ाई।
मंजू ध्यानपूर्वक बहन के चेहरे को देखने लगी। उसकी बुद्धि में यह न बैठ रहा था कि क्यों यह रूपा दीदी को मिलने स्वयं नहीं जा रही। जब बडी देर तक गंगा न बोली तो मंजू ने फिर स्वयं ही कहा- ''आ दीदी! मैं बताऊं वह कहां है.. देखोगी तो देखती रह जाओगी... इतनी प्यारी लग रही है रूपा दीदी.. ''
''अच्छा... ''
''हां दीदी! बिल्कुल तुम जैसी.. लाल रेशमी जोड़ा...कानों में बालियां... बांहों में ढेर-सी चूड़ियां...लाल, नीली, पीली...पर एक बात तुम से भिन्न है दीदी...''
''क्या?''
''जब तुम्हारा ब्याह हुआ तो तुम चुप थीं और रूपा दीदी तो रोये जा रही है...।''
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