ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
रूपा कुछ और कहना चाहती थी; किन्तु गंगा अपने दुःख को मन ही में दबाये चुपचाप उठकर दूसरे कमरे में चली गई। रूपा कुछ देर खड़ी उसे देखती रही और फिर लौट गई।
रूपा के ब्याह का दिन भी आ पहुँचा। उसका अनुमान ठीक निकला। मोहन छुट्टी न मिलने का बहाना करके इस अवसर पर न पहुँचा। काकी और रूपा को बडी निराशा हुई; किन्तु वे भी विवश थीं। वैसे वे लोग भली-भांति जानते थे कि छुट्टी न मिल सकने का वास्तविक कारण क्या था। यह जानकर कि मोहन अपनी बहन के ब्याह पर नहीं पहुँच पाया, गंगा को भी दुःख तो अवश्य हुआ, पर उसे स्वयं उसके आने की कोई आशा न थी। भला उसके वहां होते हुए वह गांव में कैसे आ जाता। समाज के अगणित प्रश्नों के उत्तर देने का उसमें साहस न था। वह तो विवश थी, उसे तो अनादर में भी यही जीवन काटना था। वह जाती कहां? गांव वाले उसे सन्देह से देखते। उसे लगता कि हर बड़ी-बूढ़ी की मौन दृष्टि उससे पूछ रही हो, 'अरी अभागिन' तुझ में अवश्य ही कोई अवगुण होगा कि ब्याह के बाद तेरा डोला आंगन से न उठा।
वह बेचारी गाँव वालों की बदली हुई दृष्टि देखती और मन मसोस कर रह जाती। दो-एक बार उसके जी में आया भी कि कहीं ऐसे स्थान में भाग जाये जहाँ, उसे कोई न जानता हो, किन्तु रूपा ने उसे जाने न दिया। फिर शरत् और मंजू को लेकर वह द्वार-द्वार कहां भटकती। प्राय: उसके अंधकारमय जीवन में स्वयं ही एक हल्का-सा आशा का दीपक जल उठता कि मोहन आयेगा, उसकी भूल को क्षमा कर देगा... और यूँ उसके दिन फिर जायेंगे... किन्तु यह आस भी टिमटिमाता हुआ दीया जैसे स्वयं ही जल पड़ता वैसे ही स्वयं बुझ भी जाता। निराशा उसके जीवन का अंग बन चुकी थी।
रूपा की बारात आने में कुछ ही समय बाकी था। काकी के यहाँ काफी गहमागहमी थी। गाँव वाले सबेरे से ही काम-काज में हाथ बंटाने के लिए इकट्ठे हो गये थे। ढोलक पर स्त्रिओं के गाने की ध्वनि निरन्तर आ रही थी। गंगा आंगन का किवाड बन्द किये अपने कमरे में बैठी थी। उसे ऐसे में वाहर जाते कुछ डर-सा लग रहा था। उसने शरत् और मंजू को भी टोका। वह न माने और दीदी के ब्याह की रौनक देखने हठ करके घर से निकल गए।
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