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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

तेरह

इस बात को दो महीने बीत गये। गंगा के सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पडा था, किन्तु उसने अत्यधिक साहस से हर कठिनाई का सामना किया। जी तोड़कर खेतों में मजदूरी करके वह अपना और नन्हे भाई-बहन का पेट पालने लगी। इस बीच में मोहन की कोई खबर न आई। आशा के जो थोडे-बहुत दीपक कभी झिलमिला उठते थे, धीरे-धीरे बुझ गये और रह गया वही एक नीरस अन्धकार।

गाँव वालों ने उसे कलंकिनी समझा। काकी का बड़ा आश्रय था, उसने भी मुख मोड़ लिया। बस एक रूपा ही थी जिसको उससे सहानुभूति थी, जो उसके दुःख को समझती थी और कभी-कभार चोरी-छिपे आकर उसका दुखड़ा सुन जाती। मां ने दो-एक बार उसे गंगा के यहां जाते हुए देखकर डांटा भी, पर सखी का प्रेम सहज न छूट सका। वह फिर भी अवसर पाकर उसके पास आ बैठती। मां घर में न थी, रूपा को अवसर मिला और सीढ़ियां चढ़कर पीछे से सखी के पास आ बैठी। आज वह एक विशेष सूचना लेकर आई थी।

''सुना तुमने कुछ... '' रूपा ने बैठते हुए गंगा से पूछा।

''क्या...''

''शायद मोहन भैया यहां आयें।''

''तुम्हारे ब्याह पर!'' गंगा ने पूछा।

''हूँ...''

''नहीं... वह नहीं आयेंगे.. ''

''मेरा ब्याह हो और वह न आये... यह कैसे हो सकता है... और फिर वर भी उन्हीं ने खोजा है...'' रूपा ने तनिक गर्व से तनकर कहा।

''वह इसीलिए नहीं आएंगे कि मैं अभागिन जो यहां हूँ...''

गंगा की आंखों में अनायास ही आँसू भर आये।

रूपा ने उसकी पीड़ा का अनुमान लगाया और धीरे से बोली, ''चिन्ता न कर बहन! अब की उन्हें आने तो दे... सीधा न किया तो रूपा नाम नहीं।''

''पगली! दुनिया इतनी सीधी नहीं जितना तू समझती है... फिर उनका इसमें क्या दोष...मैंने ही तो उनके सुखी जीवन में अंगारे भर दिये हैं..'' गंगा ने यह कहकर एक ठंडी आह भरी और मुंह मोड़कर अपने आंसू पोंछने लगी। रूपा तो भरसक उसके दुःखी मन को बहलाने का यत्न करती; किन्तु यह सांत्वना के शब्द उसकी चिन्ताओं का निबारण न कर सके। जीवन बोझ बन जाने पर भी फेंका नहीं जा सकता, उसे घसीटना ही पड़ता है।

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