ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
वह घाट पर आ रुकी। उसके पाँव ईंटों के बने हुए चबूतरे पर टिके थे, जहां बैठकर उसने कई बार लहरों की अठखेलियाँ देखी थीं। हवा में खेलती लहरें, उछलती मचलती लहरें, तूफानों से उलझती लहरें, मदमाती गति से बहती लहरें।
वह लहरें आज भी हैं। नदी का पानी आज भी बह रहा है। वही किनारे, वही लहरें और वही खेल। गंगा एकटक उन्हें देखे जा थी। कितनी दयालु थीं लहरें-कितनी विशाल जो आज उसके जीवन के सब दुःखों को अपने आँचल में समेट लेंगी! अपने वक्ष में वह सब छिपा लेंगी, जो संसार की आंखें उजागर होने पर न देख सकीं।
वह नदी की गोद में सोने जा रही थी। फिर सदा के लिए उस के दु:खों का अन्त हो जाएगा-शान्ति मिल जायेगी। उसने जी कड़ा किया और आंख बन्द करके डूबने को बढ़ना ही चाहती थी कि एकाएक मौन लहरों में हलचल-सी हुई। एक सुनहरी किरण-सी उन पर नाचने लगी। उसे यूं अनुभव हुआ कि स्वयं नदी कह रही हो, ''बेटी! जानती हूँ तू मेरी गोद में सोने आ रही है, इसीलिए कि तेरी पीड़ा का अन्त हो जाये और तुझे सदा के लिए अशान्ति से छुटकारा मिल जाए। दुनिया वाले तुझे जीने नहीं देते। तू किसी की बेटी नहीं रही... तुझ पर कलंक लग चुका है और अब कोई तुझे अपनायेगा नहीं। किन्तु तू भूल रही है कि तू एक स्त्री है...मां है। तू क्या जाने कि धरती और स्त्री, दोनों को अपने बच्चों की रक्षा के लिए अपरिमित दुःख उठाने पडते हैं। तू उन भोले-भाले बच्चों की माँ है जिन्हें नींद में छोड़कर, यहां अपने दुःख का अन्त करने चली आई है। कभी यह भी सोचा कि तेरे बाद उनका क्या होगा...शरत् और मंजू का क्या होगा?''
गंगा का मस्तिष्क चकरा गया और वह आंखें बन्द किये ही चिल्ला उठी, ''शरत्... मंजू...''
उन बच्चों की प्यारी मुखाकृतियाँ पानी की लहरों पर नाचने लगीं.. उससे यह सब न सहा गया और वह पागलों की भाँति गांव के मार्ग पर दोबारा भागने लगी।
रात के सन्नाटे में 'शरत्' और 'मंजू' की ध्वनि दूर तक गूंज कर रह गई।
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