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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''यह एकटक घूर कर क्या देख रहे हो?'' उसने दोनों की ओर देखते हुए पूछा।

''अपनी दीदी को-'' दोनों एक साथ बोले।

''क्यों? दीदी को पहली बार देखा है क्या?''

''दीदी को तो नहीं, दीदी की प्यास को-'' मंजू झट बोली। न जाने क्यों मंजू की बात सुनकर उसका हदय फिर तेजी से धड़कने लगा। सोचकर वह फिर द्वार की ओर पलटी और रुपा के घर की ओर भाग गई।

रूपा उसकी सबसे घनिष्ठ सखी थी। दोनों एक-दूसरे के मन का भेद जानती थीं। दोनों में कुछ न छिपा था। रूपा का पिता यद्यपि गंगा के पिता से बढ़कर धनवान था, तथापि रूपा और गंगा में समानता थी। मन के मिलन में धन वाधा नहीं होता। बचपन में ही दोनों इकट्ठी खेलीं और अब एक साथ ही यौवन के द्वार पर पहुँची थीं।

जब गंगा रूपा के यहां पहुंची तो वह वरामदे में लटके पिंजरे में बन्द चकोर को बाजरा डाल रही थी। गंगा को देखते ही उसकी ओर लपकी और उसे खींचती हुई अपने कमरे में ले गई।

''अरी। बता तो क्या हुआ?'' रूपा ने पलंग पर गिरकर उसे दोनों हाथों से खींचते हुए पूछा।

''गजब हो गया रूपा...''

'' क्या?''

''गहरी चोट लगी है...'' गंगा हांफते हुए बोली।

'कहां?'

''माथे पर.... ''

''तू तो भली-चंगी है...'' रूपा ने उसके माथे को छूते हुए कहा और फिर सिर से पांव तक उसे निहारने लगी।

''अरी! मेरे सिर पर नहीं...उसके माथे पर।''

''किसके?''' रूपा ने विस्मय प्रकट करते हुए पूछा।

गंगा ने कांपती दृष्टि से आस-पास देखा और फिर रूपा के पास मुंह ले जाकर धीमे स्वर में पूरी घटना का वर्णन कर दिया। उसे डर था कि उसके बापू को इसका ज्ञान हो गया तो वह अवश्य उसे पीटेंगे; किन्तु इसमै उसका अपना क्या दोष था, यह घटना तो अकस्मात् ही हो गर्ह थी।

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