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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

नहा कर गुनगुनाती हुई गंगा झाल के नीचे से निकली और हिरनी के समान उछलती-फांदती समीप के उस खेत में पहुँची जहां छोटी-छोटी लड़कियां गुलेल से चिड़ियाँ उड़ा रही थीं। गुलेल से पक्षी उड़ाने का खेल उसे बहुत भला लगता था। उसने एक लड़की के हाथ से गुलेल छीन ली और इधर-उधर घूम कर पक्षियों को उड़ाने लगी। उसे चिडियों को मार गिराने का तनिक भी चाव न था, न उसे इस बात से कोई सम्बन्ध था कि वे फ़सल को कितनी हानि पहुँचाती हैं। हाँ, उसे उनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर जाते हुए देखना बड़ा सुन्दर लगता था। गुलेल से पत्थर फेंकने के इस खेल में उसे बड़ा मजा आ रहा था।

एकाएक एक अनजान चीख को सुनकर वह चौंक उठी। उसकी प्रसन्नता क्षण-भर में काफ़ूर हो गई और गुलेल अनायास उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर गई। गुलेल से फेंका हुआ पत्थर एक अजनबी युवक के माथे पर जा लगा था और वह माथे को हाथ से सहलाता हुआ उसके सामने खड़ा था।

गंगा बर्फ हो गई। उसके पांव वहीं धरती में जम कर रह गये थे। वह सोच भी न सकी कि क्षण-भर में यह क्या हो गया। अजनबी युवक माथे पर हाथ रखे गंगा के सामने आ खड़ा हुआ था और एकटक उसे देखे जा रहा था। माथे से बहे लहू से उसकी अंगुलियां सनी हुई थीं। इससे पूर्व कि वह व्यक्ति उससे कुछ कहता गंगा ने स्वयं साहस बटोर कर पूछा- ''तुम कौन हो?''

युवक बिना उत्तर दिये घाव पर हथेली धरे उसे देखता रहा। गंगा एकाएक पलटी और तेजी से भाग खड़ी हुई।

''ठहरो! रुको।'' युवक ने उसे रोकना चाहा; किन्तु गंगा ने मुड़कर देखना भी उचित न समझा और यह जा, वह जा। पथरीली पगडण्ड़ियों पर भागती हुई दूर जा निकली। उसने एक बार भी पलट कर न देखा।

हांफती हुई वह घर के आंगन में आई और कोने में रखे हुए मटके से जल का गिलास भर एक ही सांस में गटागट पी गई। डर और भागदौड़ से उसका गला सूख गया था। उसने अपने धड़कते हुए दिल पर हाथ रखा और शरत् तथा मंजू को देखने लगी जो ईंटों के घरोंदे बनाते-बनाते रुक गये थे और आश्चर्य से अपनी दीदी को देख रहे थे।

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