ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
गंगा बूढ़े पिता की चिन्ताओं से दूर थी। यौवन ने उसके शरीर को तो नया रूप दे दिया था, किन्तु भोले हृदय का बचपना ज्यों का त्यों था। कहीं चलते-चलते किसी लड़की की चुटकी ले ली, किसी को धक्का देकर मटकी फोड़ दी, किसी बड़ी-बूढ़ी का मुंह चिढ़ा दिया, किसी की मुर्गियों को दरबे से निकाल कर भगा दिया, हर समय चंचलता, हर बात में शरारत। होंठों पर मुस्कान, आंखों में बिजलियाँ लिए वह गांव के युवकों के हदय का केन्द्र और बूढ़े बुढ़ियों की आलोचना का पात्र बनी हुई थी। स्वयं उसकी एक ही प्रिय सखी थी - रूपा - जिसे देखे बिना उसे क्षण-भर चैन न आता। दोनों घन्टों बैठ कर बातें किया करतीं। इस समय भी पिता को ऐनक देने के पश्चात् वह रूपा ही की खोज में गांव की ढलान पर दौड़ी जा रही थी।
उछलती-फांदती वह एकाएक झरने के पास जाकर रुक गई और चांदी के समान झर-झर झरते पानी को देखने लगी। थोड़ी दूर पर खड़ी ढलान से झाल के रूप में गिर कर यह झरना नदी का रूप धारण कर लेता था। न जाने इस झरने में कैसा जादू था जो गंगा को आकर्षित कर लेता और वह अनायास इसके समीप आकर थम जाती और बडी देर तक खोई इसे देखती रहती। झाल से पानी सफेद मोतियों के समान नीचे गिरता और तुरन्त ही नदी उसे स्नेह से अपने आंचल में समेट लेती। गंगा को इस दृश्य से एक अलौकिक आनन्द प्राप्त होता। उसे लगता मानो वह स्वयं एक नदी हो जो अपने हृदय में खुशियों का संचय कर रही हो। छोटी-छोटी अनेकों खुशियां झर-झरकर आतीं और वह उन्हें समेट लेती।
नीचे घाटी में बल खाती हुई यह नदी और हरे-भरे लहलहाते हुए खेत देखकर गंगा का मन गद्गद् हो उठता और इस सौन्दर्य-रस में खोई वह एक छोटी-सी वनदेवी प्रतीत होती। बड़ी देर तक वह इस दृश्य से विभोर होती रही और फिर किसी को निकट न पाकर झाल के नीचे आ खड़ी हुई। निर्मल और शीतल जल मोतियों और फूलों की बौछार के समान उसके कोमल शरीर से टकराता और उसमें एक नव उल्लास का संचार कर जाता। इस स्पर्श से वह ऐसे झूम उठती जैसे फूलों की शाखा को बसन्त की समीर छेड़ जाये। दूर पके खेतों में लड़के-लड़कियां कई प्रकार की आवाज निकाल कर पक्षियों को उड़ा रहे थे। गंगा को इन बेसुरी आवाजों पर हँसी आ गई।
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