ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''कौन था वह?'' उसकी कहानी सुनकर रूपा ने पूछा।
''मैंने उसे पहली बार ही गांव में देखा है।''
''और उसने?'
''वह भला मुझे कैसे जानेगा?''
''तब तेरे प्राण क्यों निकले जा रहे हैं...वह तुझे नहीं जानता, तू उसे नहीं पहचानती फिर भला तेरे बापू तक यह बात कैसे पहुँचेगी?''
''हाय री दइया!'' एकाएक गंगा कलेजे पर हाथ रखते हुए भोलेपन से बोली, ''हां रूपा? ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था।'' रूपा उसके इस भोलेपन पर हंसने लगी।
सहसा आंगन में किसी के आने की आहट हुई और दोनों सखियां चौकन्नी हो गईं। अभी वे सँभल भी न पाई थीं कि किसी पुरुष ने रूपा का नाम लेकर पुकारा और फिर दूसरे ही क्षण आने वाला व्यक्ति उनके सामने था।
''यह क्या हुआ, मोहन भैया?'' तुरन्त रूपा के मुंह से निकला। नवागंतुक को देखकर गंगा के तो पांव तले की धरती खिसक गई। उसके माथे पर जमा हुआ लहू ताजे घाव को स्पष्ट कर रहा था। रूपा ने दोनों को अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा और मोहन को पलंग पर बिठा कर प्रश्न को दोहराया- ''क्या हुआ?''
''तुम्हारे गाँव की एक अल्हड़ छोकरी ने सिर फोड़ दिया है।'' मोहन ने छिपी दृष्टि से गंगा की ओर देखा।
''तो तुमने अवश्य उसे छेड़ा होगा।''
अभी यह शब्द रूपा के होंठों पर ही थे कि उसकी मां भीतर आई और बेटे का घाव देखते हुए बोली, ''किस की आंखें फूट गई थीं जो मेरे दुलारे का सिर फोड़ दिया?''
काकी की इस बात से गंगा जैसे बर्फ में दब गई। उसकी आंखों के सम्मुख अंधकार-सा छाने लगा।
''भूल मेरी थी काकी कि अचानक उसके पत्थर के सामने आ गया। उस बेचारी का क्या दोष?'' मोहन ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
''तू नहीं जानता बेटा इस गांव की छोकरियों को...ज़रा सुन्दर मुखड़ा देखा कि नजर लगा दी।'' काकी ने ध्यानपूर्वक मोहन के घाव को देखा और फिर रूपा को सम्बोधित करते हुए बोली, ''अरी खड़ी- खड़ी क्या देख रही है, जा शीघ्र हल्दी-चूना गर्म करके ले आ। अभी जानकी के घर जा कर बैठी ही थी कि यह सूचना मिली...अधिक लहू तो नहीं बहा बेटा?''
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