ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
''नहीं तो... जब आपने मेरे जीवन की इतनी बड़ी भूल को क्षमा कर दिया, तो मैं यह साधारण-सी... ''
''तुम्हारी भूल... कैसी भूल?'' मोहन सिर उठाकर सामने बैठ गया।
गंगा आखें झुकाकर बोली, ''जो बात मैं ज़बान पर न ला सकी वह आपको पत्र में लिख दी।''
''कौना-सा पत्र?'' मोहन ने आश्चर्य प्रकट किया 1
इस प्रश्न पर गंगा घबरा गई और मोहन की प्रश्नसूचक दृष्टि का सामना करते हुए उखड़ी हुई आवाज़ में बोली।
''मेरा पत्र, जो लगभग इसी समय लेकर मैं आपके कमरे के पास आई थी, छत से....। ''
''ओह! वह तुम थीं... मैंने तुम्हें इस खिड़की से भागते अवश्य देखा था...अब समझा, तुम मेरे लिए पत्र लाई थीं.. घबराहट में वह कहीं गिर गया होगा... हां, क्या लिखा था तुमने...?''
गंगा भौंचक्की रह गई और काँपती दृष्टि से दीवारों को देखने लगी। वह न जाने किस भूल का शिकार हो गई थी। क्या सोच बैठी थी वह और क्या कह बैठी थी। उसे यूँ लगा जैसे उसने जान-बूझकर अंगारों पर पाँव रख दिये हों.. वह पछता रही थी कि उसने यह क्या कर दिया।
''हां, कहो ना, क्या लिखा था तुमने उस पत्र में... वह कौन-सी ऐसी बात थी जो तुम ज़बान पर न ला सकीं और कागज के सीने पर उतार दी...अवश्य ही कोई विशेष बात होगी...कह दो ना अब मुझसे भेद कैसा?''
गंगा का अंग-अंग काँपने लगा। मोहन ने उसके दोनों कंधों को थाम कर फिर अपना प्रश्न दोहराया। यह जानकर कि मोहन अभी तक उसके रहस्य से अनभिज्ञ था, उसे बड़ा आघात पहुँचा। मोहन ने फिर वही प्रश्न दोहराया और गंगा घायल मृगी के समान दाएं-बांए बचने का मार्ग खोजने लगी। उसकी आँखों की चमक एकाएक मन्द पड़ गई।
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