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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

कुछ सोचकर वह पलंग से उठी और खिड़की के पास रखी मेज को देखने लगी। अचानक उसने देखा कि उसका लिखा हुआ कागज का टुकड़ा फूलदान में रखे फूलों में उलझ गया था। गंगा की काँपती हुई अँगुलियां फूलदान की ओर बढ़ीं; किन्तु उससे पहले ही मोहन ने उसे उठा लिया और खोलकर पढ़ने लगा। गंगा ने छिपी दृष्टि से देखा और उसके मुख का बदलता हुआ रंग परखने लगी। उसके मन की दशा उस बन्दी के समान हो गई जो कटहरे में सिर झुकाये खड़ा न्यायाधीश के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा हो।

मोहन ने निरन्तर दो-तीन बार उस पत्र को पढ़ा और बीच में एक-आध बार गंगा को भी देखा जैसे उसे विश्वास न आ रहा था कि यह सब सच था.. वह कल्पना भी न कर सकता था कि उसके सुनहरे सपनों का जाल इतना शीघ्र बिखर जाएगा। पत्र रखकर उसने कड़ी दृष्टि से अपनी दुल्हन को देखा।

''विश्वास कीजिए, इसमें मेरा तनिक भी दोष नहीं... मन नहीं माना कि आप से कुछ छिपाऊँ, इसी कारण ब्याह से पूर्व यह बात आपको लिख दी.. मुझे क्या पता था कि यह पत्र...'' वह कहते-कहते रुक गई। उसके होंठ थर-थर काँप रहे थे।

मोहन की आँखों में लहू खिंच आया था। उसने कस कर हाथों की दोनों मुट्ठियां भींच लीं और घृणाप्रद दृष्टि गंगा पर डाली। गंगा सहम गई। डर से उसके पाँव तले की घरती खिसकने लगी। उसने चाहा कि जी कड़ा करके उससे अपनी विवशता का हाल कहे; किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ कह पाती, मोहन ने दोनों हाथों से अपने सिर पर बँधे सेहरे को नोच डाला। गंगा ने उसे ऐसा करने से रोकना चाहा, पर मोहन ने उसे झटके से हटा दिया और क्रोध से सेहरे की लड़ियों को नोचते हुए वह बाहर चला गया।

वह गंगा की आंखों से ओझल हो गया और वह उसे बुत बनी देखती रही। पल-भर में उसके स्वप्न यूं टूटकर बिखर गये जैसे फर्श पर मसल कर फेंके हुए फूल। उसे रह-रह कर रूपा के वह शब्द याद आने लगे जो उसने वचन लेते हुए कहे थे, ''तू पुरुषों को नहीं जानती, वह कोई अन्य व्यक्ति हो या मेरा अपना भैया। इस विषय में यह बड़े संकीर्ण होते हैं। ऐसा न हो कि तू अपना मन हल्का करते-करते जीवन को सदा के लिए एक बोझ बना ले। भूल जा इस अपने काले दुखद अतीत को और भविष्य की खुशियों को समेट ले। इसी में तेरी भलाई है।'' गंगा के सामने जीवन की इस वास्तविकता का वही रूप सामने था, जिसका संकेत रूपा ने किया था। उसके पवित्र मन का सत्य उसके लिए पछतावा बनकर रह गया। उसके सुन्दर स्वप्न यूं ढह जायेंगे, वह यह सोच भी न सकती थी। अपनी विवशता पर रोना चाह कर भी वह रो न सकी। उसके पाँव सामाजिक बन्धन में यूं जकड़े हुए थे कि बह मोहन को जाता देखकर भी मना न कर सकी।

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