ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
सुबह मुंह-अंधेरे ही वह मन्दिर में चली गई। शायद प्रकाश से उसे डर लगने लगा था। उसमें किसी का सामना करने का साहस न था। मन्दिर में आते ही वह भगवान के चरणों में गिर पड़ी और प्रार्थना करने लगी- ''हे सर्वशक्तिमान! मुझे मनोबल प्रदान करो कि मैं इस कड़ी आपत्ति का सामना कर सकूं... मुझे शान्ति दो भगवान, शान्ति दो।'' तभी छत से लटके घड़ियाल की ध्वनि मंदिर की दीवारों में गूंज उठी और दूसरे ही क्षण मोहन का हाथ गंगा के हाथ पर था।
''भगवान्, इसे अकेले नहीं... हम दोनों को शक्ति और शान्ति दो...''
क्षण भर के लिए गंगा की सांस मानो रुक गई हो। उसने सिर उठाया पर मोहन से दृष्टि मिलाते हुए लजा गई। उसने अपना हाथ खींचने का प्रयत्न किया, पर मोहन ने उसे अलग होने का अवसर न दिया और मुस्कराते हुए बोला-
''गंगा। अब तुम्हारे मन का भय मेरे हृदय की धड़कन बन चुका है।.. अब हम दो नहीं एक हैं।.. अब तो भगवान् से एक ही प्रार्थना है... कि वह अब तुम्हारे जीवन-खेवैया को एक ऐसी शक्ति दे कि यह नाव डगमगाये नहीं.. ''
गंगा की आंखों से प्रसन्नता के आंसू छलकने लगे। न जाने मन ही मन वह शंका के किस अंधकार में खो रही थी। उसने सोचा था कि पत्र को पढ़कर मोहन शायद बिना उसे मिले ही शहर लौट जायेगा। किन्तु अब अपने हाथ को प्रीतम के हाथ में पाकर वह अतीत की सब चिन्ताओं को भूल-सी गई। एकाएक भाग्य ने पलटा खाया और उसकी आशा का बुझता हुआ दीप जगमगा उठा। उसने मोहन से कुछ कहना चाहा, होंठ थरथराये, किन्तु आवाज़ ने साथ न दिया। मोहन ने उसका हाथ ऊपर उठाया और उसकी आँखों में झांकते हुए बोला-
''हां गंगा? वचन दो.. भगवान् के सामने वचन दो... कि अब हम एक हैं.. हमारे दुःख-सुख एक हैं.. वचन दो कि तुम अपने प्यार से अतीत के दुखों को बिसरा दोगी और मेरे भविष्य का स्वर्ग बसाओगी.. ''
गंगा की आँखों में आंसू छलक उठे और उसने गर्दन झुका ली। तभी मूर्ति के सामने खड़े पुजारी ने शंख बजाया और मन्दिर की कई घण्टियाँ एक साथ बज उठीं। आरती का समय हो गया था। वे दोनों भी हाथ जोड़ कर खड़े हो गए।
न जाने क्यों आज शंख और घण्टियों की ध्वनि में गंगा को शहनाइयों की आवाज़ सुनाई दे रही थी, उसे लग रहा था जैसे अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों की खुशियां एक साथ निकट हो कर प्रत्यक्ष हो गई हों।
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