ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
बारह
रात ज्यों-ज्यों जवान होती जा रही थी गंगा के हृदय की धड़कन बढती चली जा रही थी। वह हर आहट पर कांप उठती। आज उसे हवा के नर्म झोंकों से भी डर लग रहा था। वह दुलहन बनी फूलों की सेज पर सिमटी बैठी थी। अचानक चूड़ियों की खनखनाहट हुई और रूपा ने किवाड़ खोलकर भीतर प्रवेश किया। गंगा ने दृष्टि उठाई, सिमट कर गठरी-सी बनकर बैठ गई। रूपा ने सामने रखी तिपाई पर दूध का गिलास ढक कर रख दिया और उसके साथ लग कर बैठ गई। फिर उसने सखी की ओर कुछ ऐसे ढंग से मुस्करा कर देखा कि संकोच से गंगा कनपटियों तक लाल हो गई।
''अरी! ननद से क्या शरमाना... शरमाना है तो अपने उससे शरमा.... '', रूपा ने सखी को छेडा।
''चल हट! ''
''अच्छा चली मैं... यह रहा दूध... तुम दोनों के लिए... '' वह उठते हुए बोली।
''रूपा...! ''
''हूं... ''
''एक गिलास पानी तो ले आ... मेरी अच्छी बहन।''
''क्यों...? ''
''प्यास लगी है।''
''प्यास, हूं... यह प्यास पानी से नहीं बुझेगी बन्नो।'' रूपा यह कहकर हंसने लगी; किन्तु शीघ्र ही उसकी हँसी थम गई। उसने गंगा को द्वार की ओर देखने का संकेत किया और स्वयं बाहर जाने के लिए पलटी। सामने द्वार से मोहन भीतर चला आया था और दोनों को देखकर मुस्करा रहा था। गंगा झेंप कर अनायास सिमट गई और रूपा बाहर भाग गई।
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