ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ काँच की चूड़ियाँगुलशन नन्दा
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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास
मोहन अपना निर्णय सुनाकर लौट गया। गंगा ने फिर भी किवाड़ न खोले और फूट-फूटकर रोने लगी.... उसकी बुद्धि कुछ काम न काम कर पा रही थी।
उसी रात जब वह शरत् और मंजू को सुलाकर अपने विचारों में खोई बैठी थी तो रूपा ने चुपके से आकर उसके कान में कहा--- ''मां ने भैया की बात मान ली है। वह शहर जाने से पहले, तुम्हें ब्याह कर ले जाएगा।''
''नहीं, रूपा.... नहीं, नहीं...'' वह तड़प उठी।
''हां, हां, झूठ नहीं है यह गंगा! मां ने तुम्हारे ब्याह का पूरा जिम्मा अपने ऊपर लिया है।'
''पर तू तो जानती है... यह ब्याह नहीं हो सकता।''
''क्यों?''
''उस लड़की से कौन ब्याह करेगा, जिसके आंचल पर पाप का धब्बा लग चुका हो! ''
''उसे क्या पता इस अत्याचार का?''
''पर मैं तो जानती हूं... और इस बात...को अपने प्रीतम से छिपा कर उसे धोखा दूं...मन इस पाप की आज्ञा नहीं देता।''
''पगली न बन...भूल जा इस बात को...इसे हृदय की गहराइयों में ही दबा रहने दे और जो खुशी सामने है उसे गले लगा।''
''जब मन पर ही बोझ रहेगा तो हर प्रसन्नता अंधकार बन जायेगी..''
''नहीं गंगा! तू पुरुषों को नहीं समझती.. वह मेरा भैया हो या कोई और व्यक्ति, वह जितने बाहर से साहसी दीखते हैं भीतर से उतने ही कायर भी हैं। डरती हूं, यदि मोहन भाई यह जान गये कि तुम पर क्या बीती है, तो कहीं उनका प्यार डगमगा न जाये। वह तुम्हारे अपने होते हुए भी पराये न बन जाये। मन को हल्का करते-करते कहीं जीवन को नष्ट न कर लेना।''
रूपा की बातों में सचाई थी... वह अपनी सखी का भला चाहती थी। उसकी खुशियों के लिए उसी से प्रार्थना कर रही थी। उसने अपने प्यार की सौगन्ध दिलाकर उससे वचन ले लिया कि वह इस रहस्य को सदा के लिए भूल जाएगी। गंगा ने उसे गले लगा लिया और सिसकियाँ भरने लगी।
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