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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''हां गंगा! बापू के बारे में सुन रहा न गया... बहुत दिन से आने की सोच रहा था, पर छुट्टी ही न मिल पाई... नई-नई नौकरी ठहरी... इसीलिए...''

वह चुपचाप खड़ी रही और मोहन उसके दुखी मन को सान्त्वना देने के लिए जाने क्या-क्या कहता रहा। गंगा का मन कहीं और था... वह सोच रही थी कि किस प्रकार अपना मुँह उसको दिखाए... यह पापी शरीर कैसे उसके पास ले आए... उसका हृदय बड़ी तीव्रता से ध़ड़क रहा था और शरीर में कम्पन था।

मोहन की कोई बात उसने नहीं सुनी और आंखें धरती में गड़ाये देखती रही। मोहन ने आगे बढ़ कर उसके कन्धे पर हाथ रखा। वह कांपकर रह गई और झट उससे अलग हो गई।

मोहन क्षण-भर उसे देखता रहा और फिर बढ़कर उसकी बांह पकड़ते हुए बोला- ''मैं आ गया हूं गंगा। मुझे अपने दुःख का संगी बना लो... अब मैं तुम्हें इस दशा में नहीं देख सकता।'' यह कहते हुए उसके स्वर में एक दुःख था, एक पीड़ा थी।

''नहीं मोहन, नहीं... यह सम्भव नहीं... वह सटपटा कर बोली और हाथ छुड़ाने का प्रयत्न करने लगी।

मोहन ने कसकर उसका हाथ थाम लिया और धीरे से सहलाते हुए बोला-''जान पड़ता है मेरी दी हुई कांच की चूड़ियां टूट गईं।'' इस बात पर गंगा का चेहरा एकाएक फीका पड़ गया और घबराई दृष्टि से उसने मोहन को देखा।

''घबराओ नहीं... चूड़ियां टूट सकती हैं... किन्तु मेरा प्यार तो नहीं जा सकता... वह तो तुम्हारे मन में है... तुम्हारी आंखों में है... तुम्हारी लजीली दृष्टि मुझसे कुछ कहना चाहती है। यह होंठ शायद साथ नहीं दे पा रहे।

''अब मैं तुम्हें क्या बताऊं?.... '' वह तड़प उठी।

''तुम्हें यही चिन्ता है ना कि शरत् और मंजू का क्या होगा.... इस घर क्या होगा... वह तुम मुझ पर रहने दो... विश्वास रखो, इन दोनों को अपने बच्चों के समान रखूंगा.. बस, अब तो मुस्करा दो.... ''

''नहीं, नहीं, नहीं...'' गंगा बलपूर्वक हाथ छुड़ाकर अपने कमरे की ओर भागी और इससे पूर्व कि मोहन वहां पहुँचता, गंगा ने भीतर से किवाड़ बन्द कर लिए। जब बहुत खटखटाने पर भी उसे भीतर की सटकनी न खोली तो मोहन किवाड़ के साथ लगकर बोला- ''तुम भले ही इन किवाड़ों को बन्द कर लो.... किन्तु मन के किवाड़ भी मुझसे बन्द कर लो... यह तुम्हारे लिए सम्भव नहीं। तुम सामने आओ या न आओ, पर मेरा यह फैसला सुन लो कि मैं अब गांव से अकेला नहीं जाऊंगा, तुम भी मेरे संग चलोगी... मैं तुमसे ब्याह करने आया हूं गंगा।''

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