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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585
आईएसबीएन :9781613013120

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''क्या?''

''कल शहर से मोहन भैया आ रहे हैं।'' मोहन का नाम सुनकर गंगा के हृदय के एक कोने में दबी कसक सी उठी और वह और उदास हो गई। रूपा ने उसे प्रसन्न करने के लिए कहा, ''वह तुम्हारे ही लिए आ रहे हैं। कुछ अपना ध्यान कर... कल से इस मुखड़े पर चिन्ता के बादल, यह उलझे हुए बाल, यह सिलवटों वाले वस्त्र, यह दुखियों बोली वेशभूषा न चलेगी।''

''अब वह यहां आकर क्या लेंगे...'' गंगा ने सामने दीवार की ओर देखते हुए कहा।

''कैसी बातें करती हो गंगा जो हुआ उसे भूल जाओ... मोहन भैया को अपने दुःख-सुख का साझीदार बना लो... कितनी ही चिंताएं घट जाएंगी।''

''यह सम्भव नहीं रूपा! मैं किस मुंह से उनका सामना करूंगी... अब यह मैला आंचल...''

''बस... नाम न लेना कभी उस बात का... सदा के लिए मिटा दे उसे मन से....''

''हां-हां रूपा ठीक ही कहती है गंगा।'' काकी जो अभी-अभी भीतर आई थी, उनकी अधूरी बात सुनकर बोली। इस बात पर दोनों चौंक पडीं। काकी ने स्नेह से गंगा को छाती से लगा लिया और बोली, '' यूं हर समय चिंता में डूबी रही तो जीना दूभर हो जायेगा बेटी। चिंता को मिटा डालना ही पड़ेगा हृदय से। उठ, घर में मन लगा... देख तो, क्या दशा हो गई है इतने ही दिनों में... यह घड़े में पानी कितने दिनों का बासी भरा है कभी तूने यह भी सोचा कि तुझी से तो घर में प्रकाश है, तेरे ही बल पर यह दीवारें खड़ी हैं... बेटी धीरज धर।''

दूसरे दिन मोहन शहर से आ गया। गंगा को उसके सामने आने का साहस न हुआ। काकी ने उसे दो एक बार बुलवा भी भेजा, किन्तु उसने किसी न किसी बहाने आने से इन्कार कर दिया। मोहन से से भेंट के विचार से ही उसका हृदय धड़कने लगा। इसी भय से वह आज नदी भी नहीं गई कि कहीं अकस्मात् ही मोहन से भेंट न हो जाये। मन की व्यग्रता को कम करने के लिए उसने घर की बिखरी चीजों को समेटना आरम्भ कर दिया। तभी एकाएक मोहन भीतर आया और गंगा को खोया-खोया देखकर दबे पांव उसके निकट जा खड़ा हुआ। गंगा सहसा पलटी और मोहन को सामने देखकर आश्चर्य से बोली-- ''आप!''

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